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अंगबाह्य आगम साहित्य
३३३ पुनः सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापना रूप दो भेद हैं। इस तरह स्थापना आवश्यक के ४० भेद होते हैं ।
द्रव्यआवश्यक के आगमतः और नोआगमतः ये दो भेद हैं । आवश्यक पद स्मरण कर लेना और उसका निर्दोष उच्चारणादि करना आगमतः द्रव्यआवश्यक है। इसका विशेष स्पष्टीकरण करने के लिए सप्तनय की दृष्टि से द्रव्यावश्यक पर चिन्तन किया है। नोआगमतः द्रव्यावश्यक का तीन दृष्टियों से चिन्तन किया गया है। वे दृष्टियाँ हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर और तद्व्यतिरिक्त । आवश्यक पद के अर्थ को जानने वाले, व्यक्ति के प्राणरहित शरीर को ज्ञशरीर द्रव्यावश्यक कहते हैं। जैसे मधु या घृत से रिक्त घट को भी मधुघट या घृतघट कहते हैं, क्योंकि पहले उसमें मधु या घृत था। वैसे ही आवश्यक पद का अर्थ जानने वाला चेतन तत्त्व अभी नहीं है तथापि उसका शरीर है; भूतकालीन सम्बन्ध के कारण वह ज्ञशरीर द्रव्यावश्यक कहलाता है। जो जीव वर्तमान में आवश्यक पद का अर्थ नहीं जानता है किन्तु आगामी काल में अपने इसी शरीर द्वारा वह उसे स्मरण करेगा उसका शरीर भव्यशरीर द्रव्यावश्यक है । ज्ञशरीर और भव्य शरीर से अतिरिक्त तद्व्यतिरिक्त है। वह लौकिक, कुप्रावचनिक, और लोकोत्तरीय रूप में तीन प्रकार का है। राजा, युवराज, सेठ, सेनापति, सार्थवाह प्रभृति का प्रातः व सायंकालीन आवश्यक कर्तव्य वह लौकिक द्रव्यावश्यक है । कुतीर्थिकों की क्रियाएँ कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक हैं। श्रमण के गुणों से रहित, निरंकुश, जिनेश्वर भगवान की आज्ञा का उल्लंघन करने वाले स्वच्छन्द - विहारी की अपने मत की दृष्टि से उभयकालीन क्रियाएँ लोकोत्तर द्रव्यावश्यक हैं।
भाव आवश्यक आगमतः और नोआगमतः रूप में दो प्रकार का है। आवश्यक के स्वरूप को उपयोग- पूर्वक जानना आगमतः भाव- आवश्यक है । नोआगमतः भाव - आवश्यक भी लौकिक और कुप्रावचनिक तथा लोकोत्तरिक रूप में तीन प्रकार का है। प्रातः महाभारत, सायं रामायण प्रभृति का स उपयोग पठन-पाठन लौकिक आवश्यक है। चर्म आदि धारण करने वाले तापस आदि का अपने इष्टदेव को सअंजलि नमस्कारादि करना कुप्रावचनिक भावावश्यक है। शुद्ध उपयोग सहित वीतराग के वचनों पर श्रद्धा रखने वाले चतुविध तीर्थ का प्रातः सायंकाल उपयोगपूर्वक आवश्यक करना लोकोत्तरिक भाव आवश्यक है ।