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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
श्रमण जीवन की जो आवश्यक क्रिया है इसकी शुद्धि और आराधना का निरूपण इसमें है । अतः अंगों के अध्ययन से पूर्व आवश्यक का अध्ययन आवश्यक माना गया है । एतदर्थ ही आवश्यकसूत्र की व्याख्या करने की प्रतिज्ञा प्रस्तुत सूत्र में की है । व्याख्या के रूप में भले ही सम्पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या न हो, केवल ग्रन्थ के नाम के पदों की व्याख्या की गई हो, तथापि व्याख्या की जिस पद्धति को इसमें अपनाया गया है वही पद्धति सम्पूर्ण आगमों की व्याख्या में भी अपनाई गई है। यदि यह कह दिया जाय कि आवश्यक की व्याख्या के बहाने से ग्रन्थकार ने सम्पूर्ण आगमों के रहस्यों को समझाने का प्रयास किया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
आगम के प्रारम्भ में आभिनिबोधिक आदि पाँच ज्ञानों का निर्देश करके श्रुतज्ञान का विस्तार से निरूपण किया है। क्योंकि श्रुतज्ञान का ही उद्देश ( पढ़ने की आज्ञा ), समुद्देश ( पढ़े हुए का स्थिरीकरण), अनुज्ञा (अन्य को पढ़ाने की आज्ञा ) एवं अनुयोग ( विस्तार से व्याख्यान) होता है; जबकि शेष चार ज्ञानों का नहीं होता। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के उद्देशादि होते हैं वैसे ही कालिक, उत्कालिक और आवश्यक सूत्र के भी होते हैं ।
सर्वप्रथम यह चिन्तन किया गया है कि आवश्यक एक अंगरूप है या अनेक अंगरूप ? एक श्रुतस्कन्ध है या अनेक श्रुतस्कन्ध ? एक अध्ययन रूप है या अनेक अध्ययनरूप ? एक उद्देशनरूप है या अनेक उद्देशनरूप ? समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है कि आवश्यक न एक अंगरूप है, न अनेक अंगरूप, वह एक श्रुतस्कन्ध है और अनेक अध्ययन रूप है। उसमें न एक उद्देश है. न अनेक । आवश्यक श्रुतस्कन्धाध्ययन का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए आवश्यक, श्रुत, स्कन्ध और अध्ययन इन चारों का पृथक्-पृथक् निक्षेप किया गया है। आवश्यक निक्षेप चार प्रकार का है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । किसी का भी आवश्यक यह नाम रख देना नामआवश्यक है।
किसी वस्तु की आवश्यक के रूप में स्थापना करने का नाम स्थापना - आवश्यक है । स्थापनाआवश्यक के ४० प्रकार हैं- काष्ठकर्मजन्य, चित्रकर्मजन्य, वस्त्रकर्मजन्य, लेपकर्मजन्य, ग्रंथिकर्मजन्य, वेष्टनकर्मजन्य, पुरिमकर्मजन्य (धातु आदि को पिघलाकर साँचे में ढालना ), संघातियकर्मजन्य (वस्त्रादि के टुकड़े जोड़ना) और अक्षकर्मजन्य (पासा) वराटककर्मजन्य ( कौडी ) । इनमें से प्रत्येक के दो भेद हैं- एक रूप और अनेक रूप ।