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अंगबाह्य आगम साहित्य ३३१
भद्रबाहु स्वामी ने अनुयोग के पर्याय इस प्रकार बताये हैं-अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा और वार्तिक । विशेषावश्यकभाष्य में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने और वृहत्कल्पभाष्य में संघदासगणी ने इन सभी का विवरण प्रस्तुत किया है।
अनुयोगद्वार में द्रव्यानुयोग की प्रधानता है । उसमें चार द्वार हैं, १८६६ श्लोकप्रमाण उपलब्ध मूलपाठ है । १५२ गद्यसूत्र हैं और १४३ पद्यसूत्र हैं ।
अनुयोगद्वार में प्रथम पंचज्ञान से मंगलाचरण किया गया है। उसके पश्चात् आवश्यक अनुयोग का उल्लेख है । इससे पाठक को सहज ही यह अनुमान होता है कि इसमें आवश्यकसूत्र की व्याख्या होगी, पर ऐसा नहीं है । इसमें अनुयोग के द्वार अर्थात् व्याख्याओं के द्वार उपक्रम आदि का ही विवेचन किया गया है। विवेचन या व्याख्या पद्धति कैसी होनी चाहिये यह बताने के लिए आवश्यक को दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत सूत्र में केवल आवश्यक श्रुतस्कन्ध अध्ययन नामक ग्रन्थ की व्याख्या, उसके छह अध्ययनों के frण्डार्थ (अर्थाधिकार का निर्देश ), उनके नाम और सामायिक शब्द की व्याख्या दी है। आवश्यकसूत्र के पदों की व्याख्या नहीं है । इससे स्पष्ट है कि अनुयोगद्वार मुख्यरूप से अनुयोग की व्याख्याओं के द्वारों का निरूपण करने वाला ग्रन्थ है- आवश्यकसूत्र की व्याख्या करने वाला नहीं ।
आगम साहित्य में अंगों के पश्चात् सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान आवश्यक सूत्र को दिया गया है, क्योंकि प्रस्तुत सूत्र में निरूपित सामायिक से ही श्रमण जीवन का प्रारम्भ होता है । प्रतिदिन प्रातः संध्या के समय
अथवा जमत्थंतो थोक पच्छमावेहि सुतमाणुं तस्स । अभिधेये वावारो जोगो तेणं व संबंधी ॥
अथवाऽर्थतः पश्चादभिधानात् स्तोकत्वाच्च सूत्रम् अनु तस्याभिधेयेन योजनमनुयोगः । अणुनो वा योगोऽणुयोगः अभिधेयव्यापार इत्यर्थः
- स्वोपशवृत्ति - विशेषावश्यक
१ अणुयोगो अणियोगो भास विभासा य वत्तियं चैव । एते अणुओगस्स तु णामा एगट्ठिया पंच ॥
(आव० नि० गाथा १२६, विशे० १३८२, वृ० १८७ )