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४. अनुयोगद्वार
मूल आगम साहित्य में नन्दी के पश्चात् अनुयोगद्वार आता है । जैसे पाँच ज्ञानरूप नन्दी मंगलस्वरूप है वैसे ही अनुयोगद्वारसूत्र भी समग्र आगमों को और उनकी व्याख्याओं को समझने में कुञ्जी सदृश है । ये दोनों आगम एक दूसरे के परिपूरक हैं । आगमों के वर्गीकरण में इन दोनों आगमों का स्थान चूलिका वर्ग में रखखा गया है। जैसे एक भव्य मंदिर शिखर से अधिक शोभा प्राप्त करता है वैसे ही आगम मंदिर भी नन्दी और अनुयोगद्वार रूप शिखर से अधिक जगमगाता है ।
अनुयोग का अर्थ व्याख्या या विवेचन है । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अनुयोग की व्याख्या करते हुए लिखा है- श्रुत अर्थात् शब्द का उसके अर्थ के साथ योग वह अनुयोग है । अथवा सूत्र का अपने अर्थ के सम्बन्ध में जो अनुरूप या अनुकूल व्यापार हो वह अनुयोग है। अनुयोग का प्राकृतरूप अणु + योग है। अणु = स्तोकस्वल्प, अनुपश्चात् भी होता है। सूत्र = शब्द, अर्थ से अणु = स्तोक है अतः उसे अणु कहते हैं । वक्ता के मन में अर्थ प्रथम आता है। उसके पश्चात् वह उसके प्रतिपादक शब्द का प्रयोग करता है । अथवा यों कह सकते हैं कि भगवान महावीर ने प्रथम अर्थ का उपदेश दिया और बाद में गणधरों ने सूत्र की रचना की । इसलिए सूत्र शब्द अर्थ के बाद में है । इसलिए सूत्र 'अनु' कहलाता है। इस 'अनु' शब्द का अर्थ के साथ योग करना अनुयोग है । अथवा अनु-अणुसूत्र का जो व्यापार अर्थ का प्रतिपादन वह अनुयोग है। सारांश यह है कि शब्दों की व्याख्या करने की प्रक्रिया अनुयोग है । 1
१ अणुयोजणमणुयोगो सुतस्स णियएण जमभिधेयेणं । वावारो वा जोगो जो अणुरुवोऽणुकुलो वा ॥
आह- अनुयोग इति कः शब्दार्थ ? उच्यते श्रुतस्य स्वेनार्थेन अनुयोजनमनुयोगः । अथवा --- ( अणोः ) सूत्रस्य स्वाभिधेयव्यापारो योगः । अनुरूपोऽनुकूली (वा) योगोऽनुयोगः ।