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अंगबाह्य आगम साहित्य
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रखने का कारण यह है कि श्रुत का अभ्यास बिना योग के नहीं होता था। श्रुतनिमित्त जो योगविधि करने की होती उसके प्रारम्भ में इस नन्दी के पाठ का प्रयोग होने से इसे योगनंदी कहा गया है।
प्रस्तुत आगम के रचयिता देववाचक हैं। देववाचक और आगमों को पुस्तकारूढ़ करने वाले देवद्धि दोनों के नाम-साम्य होने से दोनों को एक माना गया है। १३वीं शताब्दी में भी आचार्य देवेन्द्र ने दोनों को एक बतलाया है। जिसका समर्थन इतिहासवेत्ता मुनिश्री कल्याणविजयजी ने किया है। वे युगप्रधान नंदी में आई हुई स्थविरावली और कल्पसूत्र में आई गुर्वावली को प्रमाण मानकर अपने मंतव्य की पुष्टि करते हैं किन्तु सबसे प्राचीन प्रमाण नंदीचूणि का है। उसमें स्पष्ट रूप से उटूंकित है कि दूष्यगणी के शिष्य देववाचक हैं। कल्पसूत्र की गुर्वावली में देवद्धि के गुरु का नाम आर्य शाण्डिल्य आया है। चूणि में देववाचक को दूष्यगणि का शिष्य लिखा है। इसलिए आर्य शाण्डिल्य के शिष्य देवद्धि और दूष्यगणी के शिष्य देववाचक एक नहीं है। आगम प्रभावक मुनि पुण्यविजयजी, पं० दलसुख मालवणिया आदि भी दोनों को अलग-अलग मानते हैं। कल्पसूत्र और नन्दीसूत्र की स्थविरावली में भी इसी कारण भेद है।
१ (क) यदाह भगवान् देवद्धि क्षमाश्रमणः-नाणं पंचविहं पन्नत्तमित्यादि यदाह देवद्धि
वाचकः-से कि तं मइनाणेत्यादि (ख) यदाहनिर्दलिताज्ञानसंभारप्रसरा देवद्धिवाचकवरा:-तं समासओ चउविह पन्नत्तमित्यादि।
(आ. देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रंथ स्वोपज्ञवृत्ति) २ वीर निर्वाण संवत् और जैन कालगणना, पृ० १२० ३ (क) दूसगणिसीसो देववायगो साधुजणहियट्ठाए इणमाह
(नन्योचूणि, पृ० १०) (ख) क एवमाह-दूष्यगणि शिष्यो देववाचक इति गाथार्थः ।
(नन्दी, हारिभद्रीयावृत्ति, पृ० २०) (ग) देववाचकोऽधिकृताध्ययनविषयभूतस्य ज्ञानस्य प्ररूपणां कुर्वनिदमाह
(वही, पृ० २३) (घ) तत आचार्योऽपि देववाचकनामा ज्ञानपंचकं व्याचिख्यासु तीर्थकृत्स्तुतिमभिधातुमाह
(श्री मलयगिरीया नन्दीवृत्ति पृ०२) (ङ) दृष्यगणिपादोपसेवि पूर्वान्तर्गतसूत्रार्थधारको देववाचको योग्यविनेयपरीक्षा कृत्वा सम्प्रत्यधिकृताध्ययनविषयस्य ज्ञानस्य प्ररूपणां विदधाति
(वही, पत्र ६५)