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३२८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
___पं० श्रीकल्याणविजयजी ने देववाचक और देवद्धि को एक माना है इसलिए कल्पसूत्र के आधार से वे देवद्धि का समय भगवान महावीर के निर्वाण का १८०वाँ वर्ष मानते हैं अत: उनके मतानुसार दोनों एक होने से देववाचक का समय भी वही ६८०वा वर्ष गिनना चाहिये। लेकिन यदि वे दोनों अलग हैं, तो उनकी समय-विचारणा भी अलग करनी आवश्यक है। वल्लभी स्थविरावली में भूतदिन के ७६ वर्ष और कालक के ११ वर्ष बतलाये हैं और कालक के साथ वह स्थविरावली पूरी होती है तब अन्त में वीर निर्वाण ९८१ तक में कालक का काल पूर्ण होता है।
देववाचक ने जो परम्परा नंदी में दी है उसके अनुसार भूतदिन के बाद कालक नहीं किन्तु लौहित्य का उल्लेख है और लौहित्य के बाद अपने गुरु दूसगणि का उल्लेख है । वल्लभी स्थविरावली के अनुसार कालक के ११ वर्ष न गिनें तो भूतदिन का स्वर्गवास वीर-निर्वाण ९७० (वि० सं० ५००) में हुआ। उसके बाद नन्दी के अनुसार लौहित्य हुए और बाद में दूसगणि। दूसगणि के शिष्य देववाचक हैं। ऐसा भी संभव है कि भूतदिन्न का समय ७६ वर्ष जितना लंबा हो तो उनकी उपस्थिति में ही उनके शिष्य लौहित्य
और प्रशिष्य दूसगणि दोनों विद्यमान रहे हों। इससे हम देववाचक को वीरनिर्वाण ६७० (वि० सं ५००) से भी पूर्व मान सकते हैं । ऐसा न हो तो भी भूतदिन के बाद ५० वर्ष में देववाचक हुए ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं आती अर्थात् वि० सं०५०० से ५५० तक उनका समय माना जा सकता है।
देववाचक के समय की वि० सं०५५० यह अन्तिम अवधि माननी चाहिये । उसके पूर्व भी हुए हों ऐसी भी सम्भावना है। उनकी इस अन्तिम अवधि का समर्थन आचार्य जिनभद्र का विशेषावश्यक भी करता है। क्योंकि उसमें नंदी का उल्लेख आया है। आचार्य जिनभद्र का समय ५४६ से ५५० आस-पास का है। इसलिए नंदी की रचना उनके विशेषावश्यक से पूर्व की गई हो यह निश्चित है। वीर-निर्वाण ६८० अथवा ६६३ (विक्रम सं० ५१०५२३) में आचार्य देवद्धि ने कल्पसूत्र का लेखन पूर्ण किया है इसलिए नंदी का समय उसके पूर्व ही होना चाहिये क्योंकि नंदी का उल्लेख अन्य अंग आगमों में आता ही है। इसलिए यह निस्सन्देह है कि नंदी की रचना वि. सं ५२३ से पूर्व हो गई थी।