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अंगबाह्य आगम साहित्य ३२५ श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार भेद किये गये हैं। अवग्रह के भी अर्थावग्रह, व्यंजनावग्रह ये दो भेद हैं। व्यंजनावग्रह के श्रोत्रेन्द्रियज, घ्राणेन्द्रियज, जिव्हेन्द्रियज और स्पर्शेन्द्रियज ये ४ भेद हैं। अर्थावग्रह के श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिव्हेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय और नोइन्द्रिय जनित ये छह भेद हैं। इसी प्रकार ईहा, अवाय और धारणा के भी ६-६ भेद हैं। इस प्रकार मतिज्ञान के कुल २८ भेद होते हैं। अवग्रह एक समय रहता है। ईहा और अवाय की स्थिति अन्तर्महुर्त है और धारणा संख्येय और असंख्येय काल तक रहती है।
__ मतिज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चार प्रकार का है । द्रव्य-क्षेत्रादि की अपेक्षा से मतिज्ञानी सामान्य रूप से सभी पदार्थों को जानता है पर देखता नहीं।
श्रुतज्ञान के १४ प्रकार हैं-अक्षरश्रुत, अनक्षर, संज्ञि, असंज्ञि, सम्यक, मिथ्या, सादि, अनादि, सपर्यवसित, अपर्यवसित, गमिक, अगमिक, अंगप्रविष्ट, अनंगप्रविष्ट । इनमें से अक्षरश्रुत के संज्ञाअक्षर, व्यंजनाक्षर और लब्धिअक्षर ये तीन भेद हैं और उनके श्रोत्रेन्द्रिय आदि के भेद से छह प्रकार हैं। अनक्षरश्रत श्वासोच्छ्वास लेना, छींकना, खाँसना आदि अनेक प्रकार का है। संज्ञिश्रुत कालिकी, हेतुवादोपदेशिकी और दृष्टिवादोपदेशिकी तीन तरह की संज्ञा की अपेक्षा से तीन प्रकार का है। इसके विपरीत लक्षण वाला असंज्ञिश्रुत है।
सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थकर प्रणीत द्वादशांगी गणिपिटक सम्यक् श्रुत है। यह आचारांग से दृष्टिवाद तक है। . सम्यकदृष्टि के लिए स्व-श्रुत और पर-श्रत ये दोनों सम्यकश्रुत हैं और मिथ्यादृष्टि के लिए सम्यकश्रुत भी मिथ्या हो जाता है। मिथ्याश्रुत के नाम इस प्रकार बताये गये हैं महाभारत, रामायण, भीमासुरोक्त, शकुनरुत आदि।
पूर्वोक्त द्वादशांगी पर्यायाथिकनय की अपेक्षा से सादि और सपर्यवसित-सांत है और द्रव्याथिकनय की अपेक्षा से अनादि एवं अपर्यवसितअनंत है।
जिस सूत्र के आदि, मध्य और अन्त में कुछ विशेषता के साथ पुनः-पुन: एक ही पाठ का उच्चारण हो वह गमिक श्रुत है-जैसे दृष्टिवाद । इसके विपरीत अगमिक ध्रुत है जैसे---आचारांग आदि ।