________________
अंगबाह्य आगम साहित्य ३२३ केवल शब्द का चौथा अर्थ असाधारण है। ज्ञानावरणीय कर्म के नष्ट होने पर जैसा ज्ञान होता है वैसा दूसरा नहीं होता, इसलिए वह 'केवल' कहलाता है।
केवल शब्द का पांचवां अर्थ 'अनन्त' है। ज्ञानावरणीय के नष्ट होने से जो ज्ञान होता है, वह फिर कदापि आवृत नहीं होता, एतदर्थ वह 'केवल' कहलाता है।
जैनपरंपरा की दृष्टि से केवलज्ञान का अर्थ सर्वज्ञता है। केवलज्ञानी केवलज्ञान पैदा होते ही लोक और अलोक को जानने लगता है। केवलज्ञान का विषय सर्व द्रव्य और सर्व पर्यायें हैं। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं जिसे केवलज्ञानी नहीं जानता। कोई भी पर्याय ऐसी नहीं जो केवलज्ञान का विषय न हो। छहों द्रव्यों के वर्तमान, भूत और भविष्य की जितनी भी पर्यायें हैं सभी केवलज्ञान के विषय हैं। आत्मा की ज्ञानशक्ति का पूर्ण विकास केवलज्ञान है। जब पूर्णज्ञान हो जाता है तब अपूर्णज्ञान स्वतः नष्ट हो जाता है। अपेक्षादृष्टि से केवलज्ञान के दो प्रकार बताये हैं--(१) भवस्थ केवलज्ञान और (२) सिद्ध केवलज्ञान । भवस्थ के सयोगी और अयोगी दो भेद हैं। सयोगी के भी प्रथमसमय सयोगी भवस्थ केवलज्ञान और अप्रथमसमय सयोगी भवस्थ केवलज्ञान या चरम और अचरम सयोगी भवस्थ केबलज्ञान । सिद्ध केवलज्ञान के दो भेद हैं-अनन्तर और परम्पर। अनंतरसिद्ध केवलज्ञान के तीर्थसिद्ध, अतीर्थसिद्ध आदि १५ भेद हैं और परम्परसिद्ध केवलज्ञान के अप्रथम, द्विसमय यावत् अनंतसमय सिद्ध केवलज्ञान । सामान्य रूप से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से केवलज्ञान का चिन्तन किया गया है।
इस प्रकार प्रत्यक्षज्ञान की चर्चा के पश्चात् अप्रत्यक्षज्ञान की चर्चा की गई है। परोक्षज्ञान आभिनिबोधिक और श्रुतज्ञान दो प्रकार का है। आभिनिबोधिक को मतिज्ञान भी कहा गया है। तत्त्वार्थसूत्र में-मति, स्मृति, चिन्ता और आभिनिबोधक को एकार्थी कहा है। जो ज्ञान इन्द्रियों और मन की सहायता से होता है, वह मतिज्ञान है। मतिज्ञान के पश्चात् जो चिन्तन, मनन के द्वारा परिपक्व ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान है । श्रुतज्ञान होने के लिए शब्द श्रवण आवश्यक है। शब्दश्रवण मति के अन्तर्गत है क्योंकि वह श्रोत्र का विषय है। जब शब्द सुनाई देता है तब उसके अर्थ का स्मरण होता है। शब्दश्रवणरूप जो प्रवृत्ति है वह मतिज्ञान है। उसके पश्चात् शब्द