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३२२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
मनःपर्यवज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति ये दो प्रकार हैं । ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति ज्ञान अधिक विशुद्ध होता है। ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति मन के अधिक सूक्ष्म परिणामों को भी जान सकता है। दोनों में दूसरा अन्तर यह है कि ऋजुमति प्रतिपाती है अर्थात् उत्पन्न होने के पश्चात नष्ट भी हो सकता है किन्तु विपूलमति केवलज्ञान की प्राप्ति तक बना रहता है। दोनों प्रकार के मन:पर्यवज्ञान का चार प्रकार से चिन्तन किया है।
द्रव्य की दृष्टि से-ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी अनन्तप्रदेशी अनन्त स्कन्धों को जानता ब देखता है किन्तु विपूलमति मनःपर्यवज्ञानी उससे अधिक स्पष्ट, विशुद्ध और विपुल जानता व देखता है।
क्षेत्र की दृष्टि से-ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी कम से कम अंगुल के असंख्यातवें भाग को और अधिक से अधिक नीचे रत्नप्रभा पृथ्वी के छोटे प्रतरों तक तथा ऊपर ज्योतिष्क विमान के उपरितल पर्यन्त और तिर्यक लोक में ढाई द्वीप के संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों के मनोगत भावों को जानता व देखता है और विपुलमति उसी क्षेत्र से ढाई अंगुल अधिक विपुल, विशुद्ध व स्पष्ट जानता व देखता है।
काल की दृष्टि से-ऋजुमति पल्योपम के असंख्यातवें भाग के भूत व भविष्य को जानता व देखता है और विपुलमति उससे कुछ अधिक विशुद्ध व स्पष्ट जानता-देखता है।
भाव की दृष्टि से-ऋजुमति अनंतभावों को (भावों के अनन्तवें भाग को) जानता व देखता है। विपुलमति कुछ अधिक विस्तारपूर्वक व स्पष्ट रूप से जानता व देखता है।
केवलज्ञान में केवल शब्द का अर्थ एक या सहायरहित है। ज्ञानावरणीय कर्म के समूल नष्ट होने से ज्ञान के अवान्तर भेद मिट जाते हैं और ज्ञान एक हो जाता है। उसके पश्चात् मन व इन्द्रियों के सहयोग की आवश्यकता नहीं रहती अत: वह 'केवल' कहलाता है।
केवल शब्द का दूसरा अर्थ शुद्ध है। ज्ञानावरणीय के नष्ट होने से ज्ञान में किञ्चित् मात्र भी अशुद्धि का अंश नहीं रहता है, इसलिए वह 'केवल' कहलाता है।
केवल शब्द का तीसरा अर्थ सम्पूर्ण है। ज्ञानावरणीय के नष्ट होने से ज्ञान में अपूर्णता नहीं रहती है, इसलिए वह 'केवल' कहलाता है।