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अंगबाह्य आगम साहित्य ३२१
(५) अप्रतिपाती - जीवन पर्यन्त अथवा केवलज्ञान उत्पन्न होने तक
रहने वाला |
(६) प्रतिपाती - उत्पन्न होकर जो पुनः नष्ट हो जाये । विषय की दृष्टि से अवधिज्ञान चार प्रकार का है। द्रव्य की दृष्टि से है और उत्कृष्ट सभी रूपी क्षेत्र की दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग को जानता है और उत्कृष्ट लोकप्रमाण असंख्य खंडों को (अलोक में ) जानता व देखता है ।
अवधिज्ञानी जघन्य अनंत रूपी द्रव्यों को जानता द्रव्यों को जानता व देखता है।
काल की दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्य आवलिका के असंख्यातवें भाग को जानता है और उत्कृष्ट उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी अतीत और अनागत काल को जानता व देखता है।
भाव की दृष्टि से - अवधिज्ञानी जघन्य अनंत पर्यायों को और उत्कृष्ट अनंत पर्यायों को जानता व देखता है ।
यहाँ पर जघन्य और उत्कृष्ट में जो अनंत शब्द आया है वह अनन्त अनन्त प्रकार का है अतः परस्पर किसी प्रकार का विरोध नहीं है । दूसरी बात क्षेत्र और काल को जानना व देखना बताया गया है वह केवल विचार है वस्तुतः तद्गत रूपी पदार्थों को जानता व देखता है ।
मनः पर्यवज्ञान मनुष्य गति के अतिरिक्त अन्य किसी गति में नहीं होता । मनुष्य में भी संयत-मनुष्य को होता है, असंयत को नहीं । मनःपर्यवज्ञान का अर्थ है - मनुष्य के मन के चिन्तित अर्थ को जानने वाला ज्ञान । मन एक प्रकार का पौद्गलिक द्रव्य है। जब व्यक्ति किसी विषय विशेष का विचार करता है तब उसके मन का नाना प्रकार की पर्यायों में परिवर्तन होता रहता है । मनः पर्यवज्ञानी मन की उन विविध पर्यायों का साक्षात्कार करता है । उस साक्षात्कार में वह यह जानता है कि व्यक्ति इस समय में यह चिन्तन कर रहा है । यह ज्ञान मन के प्रवर्तक या उत्तेजक पुद्गल द्रव्यों को साक्षात् जानने वाला है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो मन के परिणमन का आत्मा के द्वारा साक्षात् प्रत्यक्ष करके मानव के चिन्तित अर्थ को जान लेना मन:पर्ययज्ञान है। यह ज्ञान मनपूर्वक नहीं होता वरन् आत्मपूर्वक होता है । मन तो उसका विषय है । ज्ञाता तो साक्षात् आत्मा है ।