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________________ ३१६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा तीसरे उद्देशक में कहा है कि जो अल्पवयस्क होने पर भी दीक्षापर्याय में ज्येष्ठ है वह पूजनीय है। जो पीछे से अवर्णवाद नहीं बोलता, सामने विरोधी वचन नहीं कहता, जो निश्चयकारी और अप्रियकारिणी भाषा नहीं बोलता वह पूज्य है। चौथे उद्देशक में चार समाधियों का वर्णन है । समाधि का अर्थ हित, सुख या स्वास्थ्य है। विनय समाधि के स्थान हैं-विनयसमाधि, श्रुतसमाधि, तपसमाधि और आचारसमाधि । इन चारों के चार-चार भेद बताये हैं। . दसवाँ अध्ययन 'सभिक्षु' नामक है। जिसकी आजीविका केवल भिक्षा है वह भिक्षु कहलाता है। संवेग, निर्वेद, विवेक, सुशील-संसर्ग, आराधना, तप, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय, शान्ति, मार्दव आदि भिक्षु के लक्षण हैं। जो छहकाय के जीवों को अपने समान मानता है, पाँच महाव्रतों की आराधना और आस्रवों का निरोध करता है वह भिक्षु है। जो हाथों से संयत हो, पैरों से संयत हो, वचन, इन्द्रियों से संयत हो, अध्यात्मरत हो और जो सूत्रार्थ को जानता हो, वह भिक्षु है। जो मद का त्याग कर धर्मध्यान में लीन रहता है, वह भिक्षु है। इसकी दो चूलिकाएं हैं। प्रथम चूलिका 'रतिवाक्या' है। प्राणियों को असंयम में सहज ही रति और संयम में अरति होती है। जैसे चंचल घोड़ा लगाम से, मदोन्मत्त हाथी अंकुश से वश में आता है वैसे ही १८ स्थानों का चिन्तन करने से चंचल मन स्थिर होता है, आदि इसमें वर्णित है। दूसरी चूलिका विवित्तचर्या' है। उसमें श्रमण की चर्या, गुणों और नियमों का निरूपण है। श्रमण को मद्य, मांस आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। किसी से ईर्ष्या नहीं करनी चाहिये, विकृतियों का त्याग कर पुनः-पुन: कायोत्सर्ग करना चाहिये और स्वाध्याय व योग में रत रहना चाहिये। आत्मा की रक्षा पर बल देते हुए कहा है कि सर्व यत्न से आत्मा की विषय-कषायादि से रक्षा करनी चाहिये। यही सम्पूर्ण दशवकालिक सूत्र का सार है।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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