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३१४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा का उपयोग न करना, पल्यंक व गृहस्थ के आसन पर न बैठना, स्नान न करना, शरीर की शोभा का त्याग करना आदि का उपदेश है। सभी जीव जीना चाहते हैं अत: निग्रंथ श्रमण प्राणवध का त्याग करते हैं। मिथ्या भाषण न करे, सचित्त या अचित्त, अल्प या बहत, यहाँ तक कि दांत कुरेदने का तिनका भी बिना मांगे ग्रहण न करे। मैथुन अधर्म का मूल है, अतः निर्ग्रन्थ मैथुन का त्याग करता है । वस्त्र, पात्र आदि परिग्रह नहीं किन्तु मूर्छा परिग्रह है। भिक्ष रात्रिभोजन का त्याग करे।
सातवें अध्ययन का नाम 'वाक्यशुद्धि' है। प्रस्तुत अध्ययन में असत्य और सत्यासत्य भाषा के प्रयोग का निषेध किया गया है। भाषा के ये दोनों प्रकार सावध हैं किन्तु असत्यामृषा (व्यवहारभाषा) के प्रयोग का निषेध भी है और विधान भी है। श्रमण के लिए क्या वक्तव्य है, क्या अवक्तव्य है-इसका बहुत ही सूक्ष्म विवेचन इस अध्ययन में है। बोलने से पहले और बोलते समय कितनी सावधानी अपेक्षित है, यह इसमें प्रतिपादित करते हुए कहा है कि कठोर एवं अनेक प्राणियों को त्रास उत्पन्न करने वाली सत्यवाणी भी न बोले क्योंकि उससे पाप का बन्ध होता है। 'काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर कहकर न पुकारे । गृहस्थ को आओ, बैठो, यह करो, यहाँ से जाओ या खड़े रहो ऐसी भाषा न बोले । जो भाषा पापकर्म का अनुमोदन करने वाली हो, दूसरों के लिए पीडाकारक हो ऐसी भाषा क्रोध, लोभ, भय और हास्य के वशीभूत होकर भी साधु को नहीं बोलनी चाहिये।
आठवें अध्ययन का नाम 'आचारप्रणिधि' है। आचार एक निधि है। उस निधि को प्राप्त कर श्रमण को किस प्रकार रहना चाहिये इसका दिशानिर्देश इसमें है। प्रणिधि का दूसरा अर्थ एकाग्रता, स्थापना या प्रयोग है। जैसे उच्छृङ्खल अश्व सारथी को उन्मार्ग पर ले जाता है वैसे ही दुष्प्रणिहित इन्द्रियाँ श्रमण को उत्पथ में ले जाती हैं । अतः श्रमण को कषायादि का निग्रह कर मन का सुप्रणिधान करना चाहिये । यही शिक्षण इस अध्ययन में दिया गया है। इसलिए इसका नाम आचारप्रणिधि है। मन, वचन और काय से श्रमण को छहकाय के जीवों के प्रति अहिंसक आचरण करना चाहिये। संयतात्मा को चाहिये कि वह पात्र, कम्बल, शय्या, मलादि त्यागने का स्थान, संथारा व आसन की एकाग्रचित्त से प्रतिलेखना करे। कानों को प्रिय लगने वाले शब्दों में रागभाव न करें।