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अंगबाह्य आगम साहित्य जानता वह संयम को कैसे जान सकेगा। अतः श्रमण को सतत सावधान रहकर छहकाय के जीवों की विराधना नहीं करनी चाहिए।
पाँचवें अध्ययन का नाम 'पिण्डेषणा' अध्ययन है । पिण्ड शब्द 'पिंडी संघाते ' धातु से बना है। जिसका अर्थ है सजातीय या विजातीय ठोस वस्तुओं का एकत्रित होना । जैन परिभाषा में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य इन सभी के लिए पिंड शब्द प्रयुक्त होता है। ऐषणा शब्द गवेषणैषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगेषणा का संक्षेप रूप है। प्रस्तुत अध्ययन में पिण्ड की गवेषणा, शुद्धाशुद्ध ग्रहण (लेने) और परिभोग ( खाने) की ऐषणा का वर्णन होने से इसका नाम पिण्डेषणा है।
ग्राम या नगर में भिक्षा हेतु श्रमण को शनैः-शनैः और शान्तचित्त से भ्रमण करना चाहिये । उसे भूमि को ४ हाथ प्रमाण देखकर चलना चाहिये। बीज, हरित, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, अप्काय और पृथ्वीकाय आदि के जीवों की हिंसा से बचना चाहिये। सचित रज से भरे हुए पैरों से कोयले, राख, भूसे और गोबर के ढेर के ऊपर न जाय । वर्षा हो रही हो, कुहरा गिर रहा हो, महावात चलता हो और मार्ग में संपातिक जीव छा रहे हों, वेश्याओं का मोहल्ला हो, कुत्ता, सद्यःप्रसूता गाय, मदमत्त बैल, हाथी, घोड़ा, बालकों का कीड़ास्थान, कलह और युद्ध होता हो उस मार्ग से भिक्षादि के लिए न जाय। जल्दी-जल्दी वार्तालाप करते हुए या हँसते हुए भिक्षा के लिए गमन न करे। निषिद्ध और अप्रीतिकारी कुलों में भिक्षार्थ न जाय । भेड़, बालक, कुत्ते और बछड़े आदि का अतिक्रमण कर घर में प्रवेश न करे । गर्भिणी या स्तनपान कराती महिला यदि बालक को एक ओर हटाकर आहार दे तो उसे ग्रहण न करे किन्तु निर्दोष भिक्षा ग्रहण करे ।
पिण्डेषणा के दूसरे उद्देशक में भिक्षु को समय पर भिक्षा के लिए जाना चाहिये और समय पर लौटना चाहिये । भिक्षु को गोचरी जाते समय मार्ग में न बैठना चाहिये और न खड़े-खड़े कथा करनी चाहिये, आदि ।
छठे अध्ययन का नाम 'महाचार कथा' है। तीसरे अध्ययन में केवल अनाचार का नाम निर्देश किया गया था। प्रस्तुत अध्ययन में अनाचार के विविध पहलुओं पर विचार किया गया है। तीसरे अध्ययन में उत्सर्ग और अपवाद की चर्चा नहीं है किन्तु इस अध्ययन में उत्सर्ग और अपवाद की भी चर्चा हुई है। प्रारम्भ में व्रतों का पालन, जीवों की रक्षा, गृहस्थ के पात्र