SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा दूसरे अध्ययन में धुति का वर्णन है। विना धति के धर्म टिक नहीं सकता। साधु रथनेमि राजीमती से विषय-सेवन की प्रार्थना करते हैं। राजीमती उन्हें संयम में दृढ़ रहने के लिए उपदेश देती है। अगंधन सर्प अग्नि में जलकर अपने प्राण त्याग देगा किन्तु वमन किये हुए विष का कभी पान नहीं करेगा। वैसे ही साधक को भी परित्यक्त विषयभोगों का सेवन नहीं करना चाहिये। तृतीय अध्ययन में अनाचार का उल्लेख है। जिसकी धर्म में धति नहीं होती उसके लिए आचार और अनाचार का भेद नहीं होता। धतिमान ही आचार का पालन करता है और अनाचार से बचता है। जो व्यवहार शास्त्रविहित है, जिसमें अहिंसा की प्रमुखता है वह आचार है, शेष अनाचार है। अनाचार अनाचरणीय है । श्रमणों के लिए औद्देशिक भोजन, कृत भोजन, आमंत्रित भोजन, कहीं से लाया हआ भोजन, रात्रिभोजन, स्नान, गंध, विलेपन, माला पहनना, पंखा झलना, गृहस्थपात्र, राजपिंड, दन्तधावन, देह प्रलोकन आदि अनाचारों का विस्तार से वर्णन है। कुछ अनाचारों के सेवन में प्रत्यक्ष हिंसा है। कुछ के सेवन से वह हिंसा का निमित्त बनता है और कुछ के सेवन से हिंसा का अनुमोदन होता है। कुछ कार्य स्वयं में दोषपूर्ण नहीं किन्तु बाद में शिथिलाचार के हेतु बन सकते हैं अत: उनका वर्जन किया गया है। इत्यादि अनेक हेतु अनाचार सेवन में रहे हुए हैं। कुछ नियम उत्सर्ग विधि में अनाचार हैं किन्तु अपवाद विधि में अनाचार नहीं होते। चतुर्थ अध्ययन में 'षटजीवनिकाय' का निरूपण है। आचार निरूपण के पश्चात पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस आदि का विस्तार से वर्णन है। इसमें पांच महाव्रतों का निरूपण करते हए कहा है कि मुनि सजीव पृथ्वी को न खोदे, न भेदन करे। षट्जीवनिकाय को कृत, कारित, अनुमोदन व मन, वचन, काय से हानि पहुँचाने का निषेध किया है। पंच महाव्रत व छठे रात्रि-भोजन के सम्बन्ध में चिन्तन किया है। प्रत्येक क्रिया में विवेक की आवश्यकता पर बल देते हए कहा है कि यतना (विवेक) के साथ चलने, बैठने, सोने, खाने, पीने, बोलने वाला साधक पापकर्म नहीं करता। पहले ज्ञान है फिर दया है। जो अज्ञानी है वह श्रेय और पापकारी मार्ग को नहीं जानता। जो जीवों को भी नहीं जानता, अजीवों को भी नहीं
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy