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अंगबाह्य आगम साहित्य ३०७ दशवकालिक में आचार-गोचर के विश्लेषण के साथ ही जीवविद्या, योगविद्या जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा भी की गई है। यही कारण है कि इसकी रचना के पश्चात् श्रुत के अध्ययन में भी आचार्यों ने परिवर्तन कर दिया। पहले आचारांग के पश्चात् उत्तराध्ययनसूत्र पढ़ा जाता था किन्तु प्रस्तुत सूत्र की रचना होने के पश्चात् पहले दशवकालिक और उसके पश्चात् उत्तराध्ययन का अध्ययन किया जाने लगा। चूंकि श्रमण-जीवन के लिए पहले आचार का ज्ञान आवश्यक है और यह ज्ञान पहले आचारांग के अध्ययन से कराया जाता था किन्तु दशवकालिक की रचना होने के पश्चात् पहले उसका अध्ययन प्रारम्भ हुआ क्योंकि दशवकालिक सरल और सुगम था।
दशवकालिक की रचना के पहले आचारांग के शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन को अर्थत: पढ़े बिना श्रमण-श्रमणियों को महाव्रतों की विभाग से उपस्थापना नहीं दी जाती थी। पर प्रस्तुत आगम की रचना हो जाने के पश्चात् षट्जीवनिकाय नामक चतुर्थ अध्ययन को जानने के पश्चात् महाव्रतों के विभाग से उपस्थापना की जाने लगी। दशवकालिक का कर्तृत्व
व्यवहारभाष्य के अनुसार प्राचीन युग में आचारांग के द्वितीय लोकविजय अध्ययन के ब्रह्मचर्य नामक पाँचवें उद्देशक के 'आमगंधसूत्र' को बिना जाने-पढ़े कोई भी पिंडकल्पी (भिक्षा ग्रहण करने वाला) नहीं हो सकता था। दशवकालिक का निर्माण होने पर उसके पिण्डैषणा नामक
१ आयारस्स उ उरि उत्तरायणा उ आसि पुब्वं तु । दसवेआलिय उरि इयाणि किं ते न होंती उ ।।
-व्यवहार, उद्देशक ३, भाष्य, गा० १७६ (मलयगिरि) २ (क) पुव्वं सत्थपरिण्णा अधीयपढ़ियाइ होउ उवट्ठवणा । इण्डिं च्छज्जीवणया कि सा उ न होउ उवट्ठवणा ॥
-व्यवहारभाष्य, उ०३, गा० १७४ (ख) पूर्व शस्त्रपरिज्ञायामाचारांगान्तर्गतायामर्थतो ज्ञातायां पठितायां सूत्रतः
उपस्थापना अभूदिदानीं पुनः सा उपस्थापना किं षट्जीवनिकायां दशवकालिकान्तर्गतायामधीतायां पठितायां च न भवति भवत्येवेत्यर्थः ।
-व्यवहारभाष्य, गा० १७४ (मलयगिरिवृत्ति)