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३०४ जैन मागम साहित्य : मनन और मीमांसा गलिक हैं, उनमें वर्ण, गंध, रस स्पर्श आदि हैं। आज के विज्ञान ने मानवमस्तिष्क में स्फूरित होने वाले विचारों के चित्र भी लिये हैं जिनमें अच्छे-बुरे रंग उभरे हैं। प्रस्तुत अध्ययन में कृष्ण, नील, कापोत, तेजस, पद्म और शुक्ल इन छहों लेश्याओं का वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति आदि की दृष्टि से निरूपण किया गया है।
पैतीसवें अध्ययन में 'अनगार' का वर्णन है। केवल घर छोड़ देने से ही कोई अनगार नहीं होता। अनगारधर्म एक महान साधना है। उसमें हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य, इच्छा-लोभादि से दूर रहा जाता है । वह श्मशान, शून्यागार, वृक्ष के नीचे अथवा दूसरों के लिए बनाये हुए एकान्त स्थान में रहता है। वह क्रय-विक्रय से विरक्त होता है, स्वर्ण और मिट्टी को समान समझता है और आत्मध्यान में लीन रहता है।
छत्तीसवें अध्ययन 'जीवाजीवविभक्ति' है। जीव और अजीव की विभक्ति ही तत्त्वज्ञान का प्राण है। जीव-अजीव का भेद-विज्ञान ही सम्यक्दर्शन है। जीव और अजीव द्रव्य जिस आकाश में है वह लोक है और जहाँ केवल आकाश ही है तथा कोई अन्य द्रव्य नहीं है वह अलोक है। अजीव के दो भेद हैं-रूपी और अरूपी। रूपी के ४ भेद और अरूपी के १० भेद हैं। रूपी के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं। ऐसे रूपी पुद्गल के स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु ये ४ भेद और अरूपी अजीव द्रव्य धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय इन तीनों के स्कन्ध, देश और प्रदेश से कुल ६ भेद और एक अद्धासमय का भेद मिलाकर अरूपी के १० भेद होते हैं। सब मिलाकर अजीव के कुल १४ भेद होते हैं। इसके अतिरिक्त वर्णादि अवान्तर भेदों का निरूपण इसमें किया गया है।
जीव के दो भेद हैं-संसारी और सिद्ध। सिद्धों के अनेक भेद हैं। संसारी जीव के दो भेद हैं.--.स और स्थावर । स्थावर जीवों के तीन भेद हैं-पृथ्वीकाय, अपकाय और वनस्पतिकाय । इनके अवान्तर भेद अनेक हैं। अस जीवों के तीन भेद हैं-अग्निकाय, वायुकाय, द्वीन्द्रियादि विकलेन्द्रिय जीव । इनके भी भेद-उपभेद अनेक हैं। पंचेन्द्रिय जीवों के ४ प्रकार हैं-- नारक, तिथंच, मनुष्य और देव । इनके भी उत्तरभेद अनेक हैं।
प्रस्तुत अध्ययन के अन्त में समाधिमरण का भी वर्णन है। इस तरह २६६ गाथाओं में विस्तार से वर्णन हुआ है।