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अंगबाह्य आगम साहित्य ३०३ है । अतः साधक को प्रमादस्थानों से सतत सावधान रहना चाहिये। गुरुजनों और वृद्धों की सेवा करना, अज्ञानी लोगों के सम्पर्क से दूर रहना, स्वाध्याय करना, एकान्त में निवास करना, सूत्र और अर्थ का चिन्तन करना, धैर्य रखना, यह दुःख-मुक्ति का उपाय है। कर्म का बीज राग-द्वेष है। कर्म मोह से उत्पन्न होता है । वह कर्म जन्म-मरण का मूल है । अतः मोह का उन्मूलन करना चाहिए । जैसे बिल्ली के निवास स्थानों के पास चूहों का रहना प्रशस्त नहीं है उसी प्रकार स्त्रियों के पास ब्रह्मचारी का रहना प्रशस्त और श्रेयस्कर नहीं है। साधक को पांचों इन्द्रियाँ व मन अपने अधीन रखने चाहिए।
तेतीसवें अध्ययन में कर्मप्रकृति का निरूपण है। विभावदशा में कर्म का बन्ध होता है और स्वभावदशा में कम से मुक्ति होती है। स्वरूप की दृष्टि से इस विराट विश्व में सभी जीव समान हैं किन्तु कर्मों के कारण उनमें भिन्नता है। कर्म जड़-पुद्गल हैं। रागादि विभाव परिणति के कारण जीव का कर्म के साथ बंध होता है । बंध अनादि है । वह कब हुआ यह कहा नहीं जा सकता। विशिष्टबोधरूप ज्ञान को आच्छादित करने वाला कर्म ज्ञानावरणीय है। सामान्यबोध को ढकने वाला कर्म दर्शनावरणीय है। जो साता-असाता का हेतु बनता है वह कर्म वेदनीय है। जो दर्शन व चारित्र में विकृति पैदा करता है वह मोहनीय है। जीवनकाल का निर्धारण करने वाला आयुकर्म है। जिस कर्म से जीव गति आदि पर्यायों का अनुभव करने के लिए बाध्य हो वह नामकर्म है। ऊँच या नीच गोत्र का कारणभूत कर्म गोत्र कर्म कहलाता है। शक्ति का अवरोधक कर्म अन्तराय है। इन ८ कर्मों की उत्तरप्रकृतियाँ १४८ हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट स्थिति ३० कोटाकोटि सागर की है। मोहनीय की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट ७० क्रोडाक्रोड सागर है । आयुकर्म की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट ३३ सागर की है। नाम और गोत्र कर्म की स्थिति जघन्य ८ मुहूर्त और उत्कृष्ट २० क्रोडाक्रोड सागर की है। इस प्रकार कर्मप्रकृति का वर्णन होने से इस अध्ययन का नाम कर्मप्रकृति रक्खा गया है।
चौंतीसवें अध्ययन में लेश्या का वर्णन है। सामान्य रूप से मन आदि योगों से अनुरंजित और विशेष रूप से कषाय से अनुरंजित आत्मपरिणामों से जीव एक विशिष्ट पर्यावरण पैदा करता है वह लेश्या है। द्रव्यलेश्याएँ पौद्