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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
उन्तीसवें अध्ययन का नाम 'सम्यक्त्व-पराक्रम' है। समवायांग में इसका नाम अप्रमाद है । विद्वानों का ऐसा मन्तव्य है कि संभवतः यह अध्यन लुप्त हो गया होगा एवं बाद में नवीन रूप से इस अध्ययन का निर्माण हुआ होगा। क्योंकि इस अध्ययन के प्रारम्भ में ही 'सम्यक्त्व - पराक्रम' इस नाम का उल्लेख है । इस अध्ययन में संवेग, निर्वेद, धर्मश्रद्धा, गुरुसाधर्मिक शुश्रूषणा, आलोचना, निन्दा गर्हा, सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, आदि ७३ स्थानों का प्रश्नोत्तर रूप में प्रतिपादन किया गया है। यह प्रश्नोत्तरमाला उत्तराध्ययन सूत्र का सार है । ये बातें अध्यात्मभाव को अत्यन्त गहराई से स्पर्श करने वाली हैं।
aredi अध्ययन 'तपोमार्गगति' नाम का है। तप एक दिव्य रसायन है जो शरीर और आत्मा के यौगिक भावों को मिटाकर आत्मा को अपने मूलस्वभाव में स्थापित करता है। तप मुक्ति का मार्ग है। आत्मा अनादि संस्कार के कारण शरीर के साथ तादात्म्य रूप हो गया है। तप उस तादात्म्य को तोड़ने का एक अमोघ उपाय है। प्रस्तुत अध्ययन में बताया गया है कि प्राण वध, मृषावाद, अदत्त, मैथुन, परिग्रह व रात्रिभोजन की विरति से जीव आस्रवरहित होता है और पाँच समिति, तीन गुप्ति सहित, चार कषायों से रहित, जितेन्द्रिय, निरभिमानी, निःशल्य जीव आस्रवरहित होता है । करोड़ों भवों के संचित कर्म तप से नष्ट हो जाते हैं। वह तप बाह्य और आभ्यंतर रूप से दो प्रकार का है । बाह्य तप के अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, कायक्लेश, प्रतिसंलीनता ये छह भेद हैं और आभ्यंतर तप के प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग ये छह भेद हैं । तप के प्रमुख बारह भेद हैं और उनके अवान्तर अनेक भेद हैं जिनका इस अध्ययन में विस्तार से निरूपण है ।
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इकतीसवें अध्ययन का नाम 'चरणविधि' है । चरणविधि का अर्थ है- विवेकमूलक प्रवृत्ति | विवेकमूलक प्रवृत्ति ही संयम है और अविवेकमूलक प्रवृत्ति असंयम है। प्रथम गाथा में चारित्र की विधि का वर्णन होने से इसका नाम चरणविधि रक्खा गया है । आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदि से साधक को मुक्त रहना चाहिये। जो साधना में बाधक तत्त्व हैं उनकी सूची इसमें दी गई है और साधक को उनसे बचने की प्रेरणा दी गई है । बत्तीसवें अध्ययन में प्रमाद के स्थानों का वर्णन होने से इसका नाम 'प्रमादस्थानीय' रक्खा गया है। साधना में प्रमाद सबसे बड़ा बाधक तत्त्व