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________________ अगबाह्य आगम साहित्य ३०१ आचरण से सम्पन्न हुआ। इस अध्ययन में ब्राह्मण की बड़ी मार्मिक व्याख्या की गई है जो सत्य और शाश्वत है। छब्बीसवें अध्ययन का नाम 'सामाचारी है। सामाचारी का अर्थ है सम्यक व्यवस्था। इसमें जीवन की उस व्यवस्था का निरूपण है जिसमें साधक के परस्पर के व्यवहारों और कर्तव्यों का संकेत है। सामाचारी दश प्रकार की है-आवश्यकी, नैषेधिकी, आपृच्छना, प्रतिपृच्छना, छन्दना, इच्छाकार, मिथ्याकार, तथेतिकार, अभ्युत्थान और उपसम्पदा । इस अध्ययन में साधक-जीवन की कालचर्या का विभागशः विधान किया है। दिन और रात के कुल मिलाकर ८ प्रहर होते हैं। उनमें चार प्रहर स्वाध्याय के हैं, दो प्रहर ध्यान के हैं। दिन में एक प्रहर भिक्षा और रात्रि में एक प्रहर निद्रा के लिए है। स्वाध्याय और ध्यान से निद्रा स्वाभाविक रूप से कम हो जाती है। यह जाग्रत साधक का दिव्य व भव्य साधना क्रम है। सत्ताइसौं अध्ययन 'खलुंकिय है। खलुंकिय का अर्थ है- दुष्ट बैल । गर्ग गोत्रीय 'गार्ग्य' मुनि अपने समय के योग्य आचार्य थे । वे सतत संयमसाधना व स्वाध्याय में लीन रहते थे। किन्तु उनके शिष्य उदंड, स्वच्छन्दी और अविनीत थे। उनके अभद्र व्यवहार से अपनी समत्व साधना में विघ्न आता देखकर गायं ने उन्हें छोड़ दिया क्योंकि इसके अतिरिक्त कोई मार्ग न था। अनुशासनहीन अविनीत शिष्य उस दुष्ट बैल की तरह है जो मार्ग में गाड़ी को तोड़ देता है और मालिक को कष्ट पहुँचाता है। वह बात-बात पर आचार्य के साथ लड़ता-झगड़ता है और निंदा करता है। अविनीत शिष्यों का सम्पर्क होने पर आचार्य के कर्तव्य को भी इसमें बताया गया है। अट्ठाईसा अध्ययन 'मोक्षमार्ग-गति' है। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र और तप मोक्षगति के साधन हैं। इन साधनों की पूर्णता ही मोक्ष है। नवतत्त्वों के यथार्थ स्वरूप की सम्यक् श्रद्धा दर्शन है। नवतत्त्वों का सम्यक् बोध ज्ञान है, रागादि आस्रवों का निग्रह तथा संवरण होना चारित्र है और आत्मोन्मुख तपनक्रियारूप विशिष्ट जीवन-शुद्धि तप है। इससे पूर्व संचित कर्मों का अंशत: नाश होता है। यह कथन व्यवहार की अपेक्षा से है । निश्चयनय की दृष्टि से आत्मस्वरूप की प्रतीति दर्शन, स्व-रूपबोध ज्ञान और स्वयं में स्वयं की संलीनता चारित्र एवं इच्छानिरोध तप है। प्रथम दर्शन, बाद में ज्ञान और तत्पश्चात् चारित्र एवं तप आता है। इन सबकी पूर्णता होने पर मोक्ष होता है।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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