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अंगबाह्य आगम साहित्य २६६ राजा श्रेणिक के बीच हुए रोचक संवाद का वर्णन है। अनाथी मुनि की प्रव्रज्या का विशेषरूप से वर्णन होने से संभवत: समवायांग में इस अध्ययन का नाम 'अनाथप्रव्रज्या' दिया हो। प्रस्तुत आगम में 'महानिग्रंथीय' नाम मिलता है। उसका संकेत इस अध्ययन की दो गाथाओं में है। महानिर्ग्रन्थ का अर्थ सर्वविरत साधु है। क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय अध्ययन का ही विशेष रूप से वर्णन होने के कारण इसका नाम 'महानिर्ग्रन्थीय' है। ...इक्कीसवें अध्ययन का नाम 'समुद्रपालीय' है। चंपानगरी में पालित नामक एक व्यापारी था, जो महावीर का भक्त था। वह एक बार व्यापार करता हुआ पिहुंड नामक नगर में पहुंचा। वहाँ किसी वणिकपुत्री के साथ उसका विवाह हुआ। जहाज द्वारा घर लौटते हुए पालित के पुत्र हुआ जिसका नाम समुद्र-पालित रक्खा गया । वह समय पर ७२ कलाओं में निष्णात हुआ। एक समय अपराधी को ले जाते हुए देखकर वह सोचने लगा-अच्छे कर्मों का फल अच्छा होता है। बुरे कर्मों का फल बुरा होता है। कर्मफल की गहराई को वह सोचता रहा और उसका मन संवेग और वैराग्य से भर गया । उसने मुनिदीक्षा ली। इसमें साधु के आंतरिक आचार के सम्बन्ध में वर्णन करते हुए शास्त्रकार ने कहा है कि साधु प्रिय और अप्रिय दोनों बातों में सम रहे।
बाईसवें अध्ययन में 'रथनेमि' का उल्लेख है। इसमें अरिष्टनेमि, श्रीकृष्ण, राजीमती, रथनेमि आदि का चरित्र-चित्रण है। रथनेमि ने गुफा में राजीमती को देखा। उसने विवाह की बात दोहराई। राजीमती ने ने कहा-'रथनेमि ! मैं तुम्हारे भाई की परित्यक्ता हूँ और तुम मुझसे विवाह करना चाहते हो? क्या यह कार्य वमन किये को पुन: चाटने के समान घृणास्पद नहीं है ? तुम अपने और मेरे कूल के गौरव को स्मरण करो। इस प्रकार के अघटित प्रस्ताव को रखते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती?' रथनेमि को अपनी भूल समझ में आ गई। अंकुश द्वारा जैसे मत्त हाथी वश में आ जाता है और राजपथ पर चल पड़ता है वैसे ही रथनेमि भी स्वस्थ होकर पुनः अपने संयम पथ पर आरूढ़ हो गया। राजीमती का यह बोध इतना
१ (क) मग्गं कुसीलाण जहाय सव्वं महानियंठाण बए पहेणं । उत्तर० २०५१
(ख) महानियण्ठिज्जमिणं महासुयं से काहए महया वित्थरेणं । --उत्तर० २०५३