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________________ अंगबाह्य आगम साहित्य २९७ देखता है, जो किसी भी वस्तु में आसक्त नहीं होता वह भिक्षु है। जो भिक्षु सत्कार, पूजा, बंदना तक नहीं चाहता वह किसी की प्रशंसा की अपेक्षा कैसे करेगा? जो संयत है, तपस्वी है, सुव्रती, निर्मल आचार से युक्त है, जो आत्मा की खोज में लगा रहता है वह भिक्षु है । आगमयुग में कुछ श्रमण और ब्राह्मण मंत्र, चिकित्सा आदि का प्रयोग करते थे। भगवान महावीर ने उसका पूर्ण निषेध किया है। आजीविक आदि श्रमण विद्याओं का प्रयोग कर आजीविका चलाते थे। उससे आकर्षण और विकर्षण दोनों होते थे। साधना भंग होती थी। भगवान ने इन विद्या-प्रयोगों से आजीविका चलाने का निषेध किया। . सोलहवें अध्ययन में ब्रह्मचर्य समाधि का निरूपण होने से इसका नाम ब्रह्मचर्यसमाधिस्थान रखा गया है। इसमें १० समाधिस्थानों का बहुत ही मनोवैज्ञानिक ढंग से निरूपण हआ है। शयन-आसन, कामकथा, स्त्री-पुरुष का एक आसन पर बैठना, चक्षुगृद्धि, शब्दगृद्धि, पूर्व क्रीड़ा का स्मरण, सरस आहार, अतिमात्रा में आहार, विभूषा, इन्द्रिय विषयों की आसक्ति, ये ब्रह्मचर्यसाधना के विघ्न हैं । वेद-उपनिषदों में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए ऐसे शृखलाबद्ध नियमों का उल्लेख नहीं मिलता। बौद्ध साहित्य में भी इस प्रकार का ब्रह्मचर्य सम्बन्धी कोई व्यवस्थित क्रम नहीं मिलता। किन्तु प्रकीर्णक रूप से कुछ नियम मिलते हैं। वहाँ रूप के प्रति आसक्ति भाव को दूर करने के लिए अशुचि भावना के चिन्तन का मंत्र मान्य रहा है जो कामगता-स्मृति के नाम से विख्यात है। जब हम अन्य अनेक परंपराओं के संबंध में दश समाधिस्थानों का अध्ययन करते हैं तो इसकी मौलिकता का स्पष्ट परिज्ञान होता है। सत्रहवां अध्ययन पापश्रमणीय है । श्रमण बनने के पश्चात् साधक को अपना जीवन साधनामय व्यतीत करना चाहिये। जो साधक ऐसा नहीं करता बह पापश्रमण है। श्रमण बनने का लक्ष्य केवल वेश-परिवर्तन नहीं किन्तु जीवन-परिवर्तन है। जो श्रमण होकर सदा निद्राशील रहता है, यथेच्छ खा-पीकर सो जाता है वह पापश्रमण है। जो शांत हुए विवाद को पुन: उभाड़ता है, अधर्म में अपनी प्रज्ञा का हनन करता है, जो कदाग्रह और कलह में व्यस्त है वह पापश्रमण है। जो प्रतिलेखन नहीं करता, गुरुओं की आज्ञा का पालन नहीं करके अवहेलना करता है वह पापश्रमण है। अत: साधक को दोषों का परित्याग कर व्रतों को ग्रहण करना चाहिये।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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