________________
२९६
जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
पिशाच ! तु यहाँ से चला जा-यहाँ पर क्यों खड़ा है ?' यह सुनकर तिन्दुक वृक्ष पर रहने वाला यक्ष अनुकंपा से महामुनि के शरीर में प्रविष्ट होकर बोला-'मैं श्रमण हूँ, ब्रह्मचारी हूँ, धन-सम्पत्ति और परिग्रह से विरक्त हूँ, इसलिए अनुद्दिष्ट भोजन ग्रहण करने के लिए यहाँ आया है।' इस संवाद में दान का अधिकारी, जातिवाद, यज्ञ, जलस्नान, तप का प्रकर्ष आदि की चर्चा है। बौद्ध साहित्य में मातंग जातक में यह कथा प्रकारान्तर से मिलती है।
तेरहवें अध्ययन में चित्त और संभूत नाम के दो भाइयों की छह जन्मों की पूर्वकथा का संकेत है। इसलिए इसका नाम 'चित्तसंभूतीय है। पुण्यकर्म के निदान बन्ध के कारण संभूत के जीव (ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती) का पतन तथा संयमी चित्तमुनि का उत्थान बताकर जीवों को धर्माभिमुख होने का तथा उसके फल की अभिलाषा न करने का उपदेश दिया गया है। साथ में यह भी प्रतिपादित किया है कि कोई व्यक्ति यदि साधुधर्म का पालन न कर सके तो उसे गृहस्थधर्म का पालन तो अवश्य करना चाहिये ।
चौदहवें अध्ययन में छह पात्र हैं। भृगु पुरोहित, पुरोहितानी और उनके दो लड़के और राजा-रानी। किन्तु राजा की लौकिक प्रधानता के कारण इसका नाम 'इक्षुकारीय' रक्खा गया है । इस अध्ययन का प्रतिपाद्य है 'अन्यत्व भावना का उपदेश ।' वैदिक मान्यता थी कि पुत्र के बिना गति नहीं होती-'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव च नैव च ।' लोगों का इस कथन में विश्वास था। पुत्रोत्पत्ति जीवन की महान् सफलता बन गई थी और अध्यात्म के प्रति उदासीनता छा रही थी। भगवान महावीर ने इसका खण्डन किया कि पुत्र शरणदाता है। उन्होंने बताया कि धर्म ही आत्मा का सच्चा संरक्षक है। प्रस्तुत अध्ययन में भृगु पुरोहित ब्राह्मण संस्कृति का प्रतिनिधि है और उसके पुत्र श्रमण संस्कृति के । ब्राह्मण संस्कृति पर श्रमण संस्कृति की विजय बताई गई है। दोनों संस्कृतियों की मान्यताओं की मौलिक चर्चा भी इसमें आई है। बौद्ध साहित्य में हस्तिपाल जातक में कुछ परिवर्तन के साथ इस कथा का निरूपण हुआ है।
पन्द्रहवें अध्ययन में भिक्षु के लक्षणों का निरूपण है। इसमें अनेक दार्शनिक और सामाजिक तथ्यों का संकलन किया गया है। जो राग से उपरत है, संयम में तत्पर है, आस्रव से विरत है, शास्त्रों का ज्ञाता है, आत्मरक्षक एवं प्राज्ञ है, रागद्वेष को पराजित कर सभी को अपने समान