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________________ अंगबाह्य आमम साहित्य २६५ जाता है वैसे ही मनुष्य का जीवन भी क्षणभंगुर है। जैसे कूश के अग्रभाग पर स्थित ओस की बिन्दु क्षणस्थायी है वैसे ही मनुष्य का जीवन भी क्षणभंगुर है। मनुष्यभव दुर्लभ है, जो जीवों को अनेक भवों के बाद प्राप्त होता है। कर्मों का विपाक घोर होता है अतः हे गौतम ! क्षणमात्र का भी प्रमाद न कर । जीव पंचेन्द्रिय की पूर्णता प्राप्त कर सकता है किन्तु उससे उत्पन्न धर्मश्रवण दुर्लभ है । तेरा शरीर जर्जरित हो रहा है, केश पक गये हैं, इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो गई है इसलिए क्षणभर भी प्रमाद न कर। अरति, गंड-फोड़ा, फुसी, विसूचिका आदि अनेक रोगों का भय सदा बना रहता है और आशंका बनी रहती है कि कहीं कोई व्याधि खड़ी न हो जाय या मृत्यु न आ जाय । इसलिए क्षणमात्र का भी प्रमाद न कर । इस प्रकार छत्तीस बार प्रस्तुत अध्ययन में गौतम के बहाने सभी साधकों को आत्मसाधना में क्षणमात्र का भी प्रमाद न करने का संदेश भगवान ने दिया है। इस प्रकार यह अन्तर्मन के जागरण का महान् उद्घोष है जो प्रत्येक साधक के लिए ज्योतिस्तम्भ के समान है। ग्यारहवें अध्ययन में बहुश्रुत की भावपूजा का निरूपण है । यहाँ पर बहुश्रुत का प्रमुख अर्थ चतुर्दशपूर्वी है। यह सारा प्रतिपादन उन्हीं से सम्बन्धित है। बहुश्रुत के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट तीन भेद कहे हैं। जघन्य निशीथ का ज्ञाता, मध्यम निशीथ से लेकर १४ पूर्वो से कम का ज्ञाता और उत्कृष्ट १४ पूर्वी। बहुश्रतता का प्रमुख कारण विनय है। इसी का श्रुत फलवान होता है । स्तब्धता, क्रोध, प्रमाद, रोग और आलस्य ये पांच शिक्षा के विघ्न हैं। इनकी तुलना हम योगमार्ग के 6 विघ्नों से कर सकते हैं। जो सदा गुरुकुल में रहकर योग और तप साधना करता है, प्रियकारी है और प्रिय वचन बोलता है वह शिक्षा का अधिकारी है। जैसे मेरु पर्वतों में महान है वैसे बहुश्रुत ज्ञानी पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ है। बारहवें अध्ययन में मुनि हरिकेशी का वर्णन है। चांडाल कुल में उत्पन्न हरिकेशबलमुनि भिक्षा के लिए ब्राह्मणों की यज्ञशाला में पहुँचे। तप से कृश, वस्त्रों से मलिन, उन्हें आता हुआ देखकर अशिष्ट लोग हंसने लगे। वे जातिमद से उन्मत्त बनकर असंयमी-अब्रह्मचारी ब्राह्मण मुनि को लक्ष्य करके कहने लगे---'यह वीभत्स रूप वाला विकराल मलिन वस्त्रधारी मैले-कूचले वस्त्रों को अपने गले में लपेटे हए पिशाच-सा क्यों आ रहा है? अरे ! बदसूरत तू कौन है ? किस आशा से आया है ? ऐ मलिन वस्त्रधारी
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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