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________________ २८६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा अर्वाचीन हैं किन्तु अपने मन्तव्य को सिद्ध करने के लिए उन्होंने कोई प्रमाण नहीं दिये हैं। कुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि अठारह अध्ययन तो अर्वाचीन नहीं है, हाँ कुछ अध्ययन उनमें से अर्वाचीन हो सकते हैं। जैसे इकत्तीसवें अध्ययन में आचारांग, सूत्रकृताङ्ग आदि प्राचीन नामों के साथ दशाश्रुतस्कन्ध, वृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ जैसे अर्वाचीन आगमों के नाम भी मिलते हैं, जो श्रुतकेवली भद्रबाहु द्वारा नियूंढ़ या कृत हैं, जिनका समय वीर-निर्वाण की दूसरी शती है अतः प्रस्तुत अध्ययन की रचना भद्रबाहु के पश्चात् की होनी चाहिए। अन्तकृत्दशांग आदि प्राचीन आगम साहित्य में श्रमण-श्रमणियों के चौदह पूर्व, ग्यारह अंग, या बारह अंगों के अध्ययन का वर्णन मिलता है, अंगबाह्य या प्रकीर्णक श्रुत के अध्ययन का वर्णन उपलब्ध नहीं होता किन्तु उत्तराध्ययन के अट्ठाइसवें अध्ययन में अंग और अंगबाह्य-इन दो प्राचीन विभागों के अतिरिक्त ग्यारह अंग, प्रकीर्णक और दृष्टिवाद का उल्लेख उपलब्ध होता है। अतः प्रस्तुत अध्ययन भी उत्तरकालीन आगम-व्यवस्था के सन्निकट की रचना होनी चाहिए। तेवीसइ सूयगडे रूबाहिएसु सुरेसु अ। जे भिक्खू जयई निमचं से न अच्छाइ मण्डले ।। पणवीसभावणाहिं उद्दे सेसु दसाइणं । जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले ।। अणगारगुणेहिं च पकप्पम्मि तहेव य । जे भिक्खू जयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले ॥ -उत्तरा० ३१४१६-१७ २ (क) वदामि मद्दबाहु पाईणं चरिमसयलसुयणाणि । सुत्तस्स कारगमिसिं दसासु कप्पे य ववहारे । -यशाथ तस्कन्वनियुक्ति मा० १ (ख) तेण भगवता आयारपकप्प दसाकप्प ववहारा व नवमपुब्वनीसंदभूता निज्जूडा। ---पंचकल्पभाष्य गा० २३ चूणि ३ (क) सामाइयमाइयाई एक्कारसअंगाई अहिज्जइ। -अन्तकृत प्रथम वर्ग (ख) बारसंगी। --अन्तकृतवशा, ४ वर्ग, अध्य०१ (ग) सामाइयमाइयाई चोद्दसपुब्वाई अहिज्जइ। -अन्तकृतवशा, ३ वर्ग, अ०१ ४ सो होइ अभिगमरुई, सुयनाणं जेण अस्थओ दिट्ठ। .. एक्कारस अंगाई, पइण्णगं दिठिवाओ य ।। -उत्तरा० २८२३
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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