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________________ २८४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा तरह दूसरे और उन्तीसवें अध्ययन के प्रारम्भ के वाक्यों से भी यह तथ्य उजागर होता है । छठे अध्ययन की अन्तिम गाथा है- 'अनुत्तरज्ञानी, अनुत्तरदर्शी, अनुत्तर- ज्ञान दर्शन के धर्ता, अर्हत्-तत्त्व के व्याख्याता ज्ञातपुत्र वैशालिक ( तीर्थंकर महावीर ) ने ऐसा कहा है ।" प्रत्येकबुद्ध-भाषित अध्ययन भी प्रत्येकबुद्ध द्वारा ही विरचित हो, यह बात नहीं है क्योंकि आठवें अध्ययन की अन्तिम गाथा में कहा है कि विशुद्ध प्रज्ञा वाले कपिलमुनि ने इस प्रकार धर्म कहा है। जो इसकी सम्यक् आराधना करेंगे, वे संसार समुद्र को पार करेंगे। उनके द्वारा ही दोनों लोक आराधित होंगे। यदि उनके द्वारा रचित होता तो इस प्रकार कैसे कहते । सम्वाद समुत्थित अध्ययन नौवें और तेईसवें अध्ययनों का पर्यवेक्षण करने पर यह ज्ञात होता है कि वे नमि राजर्षि और केशी- गौतम द्वारा विरचित नहीं है । नौवें अध्ययन की अन्तिम गाथा है-सम्बुद्ध, पण्डित और विचक्षण पुरुष इसी प्रकार भोगों से निवृत्त होते हैं जैसे कि नमि राजर्षि 13 तेईसवें अध्ययन की अन्तिम गाथा है कि 'समग्र सभा धर्मचर्चा से सन्तुष्ट हुई । अतः सन्मार्ग में समुपस्थित उसने भगवान केशी और गौतम की स्तुति की कि वे दोनों प्रसन्न रहें । सारांश यह है कि नियुक्तिकार ने जो उत्तराध्ययन को कर्तृत्व की दृष्टि से चार वर्गों में विभक्त किया उसका तात्पर्य इतना ही है कि भगवान महावीर, कपिल, नमि और केशी- गौतम के उपदेश व संवादों को आधार बनाकर इन अध्ययनों की रचना हुई है। इन अध्ययनों के रचयिता कौन १ एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी अणुत्तरदंसी अणुत्तरनाणदंसणधरे । बरहा नायपुते भगवं बेसालिये वियाहिए | उत्तरा० ६ १८ २ इइ एस धम्मे अक्are afवलेणं च विसुद्धपनेणं । तरिहिन्ति जे उ काहिन्ति तेहि आराहिया दुवे लोगा || ३ एवं करेन्ति संबुद्धा पंडिया पवियक्खणा । विणियन्ति भोगेसु जहा से नमी रायरिसि || ४ तोसिया परिसा सध्या सम्मग्गं समुवट्ठिया । संयुया ते पसीयन्तु भयवं केसिगोयमे ॥ -उत्तरा० ८ २० -उत्तरा० ६।६२ --उत्तररा० २३३८६
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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