________________
अंगबाह्य आगम साहित्य २८३ अध्ययन प्रत्येकबुद्ध-भाषित है। नौवां और तेईसवाँ अध्ययन सम्वादसमुत्थित है।
उत्तराध्ययन के मूलपाठ पर ध्यान देने से उसके कर्तत्व के सम्बन्ध में कुछ चिन्तन किया जा सकता है ।
द्वितीय अध्ययन के प्रारम्भ में यह वाक्य आया है 'सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु बावीसं परीसहा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया।'
सोलहवें अध्ययन के प्रारम्भ में यह वाक्य उपलब्ध होता है--सुयं मे आउस ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवन्तेहिं दस बम्भचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता।' .
उन्तीसवें अध्ययन के प्रारम्भ में यह वाक्य प्राप्त होता है-सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु सम्मत्तपरक्कमे नाम अज्झयणे समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइए।
उपयुक्त वाक्यों से यह परिज्ञात होता है कि दूसरा और उन्तीसा अध्ययन तो भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित है और सोलहवां अध्ययन स्थविर द्वारा रचित है।
नियुक्तिकार ने द्वितीय अध्ययन को कर्मप्रवादपूर्व से निर्यढ माना है जबकि इस अध्ययन के प्रारंभिक वाक्य से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि वह जिन-भाषित है।
जब हम चिन्तन करते हैं तो ज्ञात होता है कि नियुक्तिकार ने चार वर्गों में विभक्त कर उसके कर्तृत्व पर प्रकाश डालना चाहा । किन्तु उससे कर्तृत्व पर तो प्रकाश नहीं पड़ता है, हाँ विषय-वस्तु पर अवश्य ही प्रकाश पड़ता है। दसवें अध्ययन में जो विषय-वस्तु है वह भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित है किन्तु उनके द्वारा रचित नहीं क्योंकि प्रस्तुत अध्ययन की अन्तिम गाथा 'बुद्धस्स निसम्म भासियं' से यह बात स्पष्ट होती है। इसी
१ (क) पत्तेयबुद्धभासियाणि जहा काविलिज्जादि ।
-उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ०७ (ख) प्रत्येकबुद्धा: कपिलादयः तेभ्य उत्पन्नानि यथा कापिलीयाध्ययनम् ।
---उत्तराध्ययन बृहत्वृत्ति, पत्र ५ २ संवाओ जहा णमिपव्वज्जा केसियोयमेज्जं च। -उत्तराध्ययनवृणि, पृ०७
उत्तराध्ययन वृहदवृति, पत्र ५