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२८२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा ये अध्ययन प्रश्नोत्तर शैली में लिखे गये हैं और कुछ अन्य अध्ययनों में भी आंशिक रूप से कुछ प्रश्नोत्तर आये हैं। प्रस्तुत दृष्टि से उत्तर का 'समाधानसूचक' अर्थ संगत होने पर भी सभी अध्ययनों में वह घटित नहीं होता। उत्तरकालवाची अर्थ संगत होने के साथ पूर्णरूप से व्याप्त भी है। अतः उत्तर का मुख्य अर्थ यही उचित प्रतीत होता है।
अध्ययन का अर्थ पढ़ना है। किन्तु यहाँ पर अध्ययन शब्द परिच्छेद (अध्याय) के अर्थ में व्यवहृत है। नियुक्तिकार और चूर्णिकार ने इसका विशेष अर्थ भी किया है किन्तु तात्पर्य परिच्छेद से ही है। उत्तराध्ययन का कर्तृत्व
उत्तराध्ययन के कर्तृत्व के सम्बन्ध में नियुक्ति, चूणि व विज्ञों में विविध मत हैं। निर्यक्तिकार भद्रबाहु उत्तराध्ययन को एक व्यक्ति की रचना नहीं मानते हैं। उनके अभिमतानुसार उत्तराध्ययन को कर्तृत्व की दृष्टि से चार भागों में विभक्त कर सकते हैं--(१) अंगप्रभव, (२) जिनभाषित, (३) प्रत्येकबुद्ध-भाषित, (४) सम्वाद-समुत्थित ।।
उत्तराध्ययन का द्वितीय अध्ययन अंगप्रभव है। वह कर्मप्रवादपूर्व के सत्रहवें प्राभृत से उद्धृत है । दसवां अध्ययन जिन-भाषित हैं। आठवाँ
१ (क) अज्झप्पस्साणयणं कम्माणं अवचओ उवधियाणं ।
अणुवचओ व णवाणं तम्हा अज्झयणमिच्छति ।। अहिगम्मति व अत्था अणेण अहियं व णयणमिच्छति । अहियं व साहु गच्छइ तम्हा अज्झयणमिच्छति ।।
-उत्तरा०नि० गाथा ६-७ (ख) उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति पृ० ६-७
(ग) , चूणि पृ०७ २ अंगप्पभवा जिणभासिया य पत्तेयबुद्धसंवाया। बंधे मुक्खे य कया छत्तीसं उत्तरायणा ॥
-उत्तराथ्पयननियुक्ति गा० ४ ३ कम्मप्पवायपुग्वे सतरसे पाहुडंमि जं सुतं । सणयं सोदाहरणं तं चेव इहपि णायव्वं ॥
-उत्तराध्ययननियुक्ति गा०६६ ४ (क) जिणभासिया जहा दुमपत्तगादि । -उत्तराध्ययनचूषि, पृ०७ (ख) जिनभाषितानि यथा द्रुमपुष्पिकाऽध्ययनम् ।
-उत्तराध्ययनवृहद्वत्ति, पत्र० ५