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________________ अंगबाह्य आगम साहित्य २७५ पुनः-पुन: देव के उद्बोधन से उसने श्रावक के पांच अणव्रत और सप्त शिक्षाव्रत ग्रहण कर लिए । तत्पश्चात् विविध प्रकार के तप करता रहा । अन्त में अर्धमासिक संलेखना से आत्मा को भावित करता हुआ पूर्वकृत पापस्थानकों की आलोचना, प्रतिक्रमण न करने से यह वहाँ से आयु पूर्ण कर शुक्र नामक महाग्रह में उत्पन्न हुआ है। वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा। चतुर्थ अध्ययन में भगवान महावीर राजगृह नगर के बाहर पधारे। उस समय बहुपुत्रिका नामक देवी भगवान के समवसरण में आती है । प्रवचन के पश्चात् वह अपनी दाहिनी भुजा से १०८ देवकुमारों को और बायीं भुजा से १०८ देवकुमारिकाओं को निकालती है। साथ ही बहुत से अन्य बालकबालिकाओं को भी अपनी वैक्रिय शक्ति से निकालती है। इसके बाद सूर्याभ देव के सदृश नाटक करती है । नाटक पूर्ण होने पर पुन: उन सबको अपने शरीर में समाविष्ट कर लेती है । गणधर गौतम ने बहपुत्रिका देवी के जाने के पश्चात् उसके सम्बन्ध में पूछा कि वह विशाल देवऋद्धि उसके शरीर में से निकली और पुनः उसके शरीर में कैसे विलीन हो गई ? भगवान ने कहा-जैसे एक भव्य भवन में से हजारों व्यक्ति निकलते हैं और पुनः उस घर में प्रवेश कर जाते हैं वैसे ही। गौतम ने पुनः जिज्ञासा प्रस्तुत की कि यह पूर्वभव में कौन थी? भगवान ने कहा-वाराणसी नगरी में भद्र नामक सार्थवाह था। उसकी पत्नी का नाम सुभद्रा था। वह बन्ध्या होने के कारण दिन-रात दुःखी रहा करती थी और मन में चिन्तन करती रहती थी-वे माताएँ धन्य हैं जिन्होंने पुत्रों को जन्म दिया है, दुग्ध-पान कराया है और अपनी गोदी में बैठाकर उनकी तुतली बोली सुनी है। किन्तु मैं तो भाग्यहीन हैं, मेरे कोई सन्तान नहीं है। एक समय वाराणसी में सुव्रता नामक आर्या, जो पंच समिति और तीन गुप्ति की धारक थी, शिष्याओं के साथ आई। उनकी शिष्याएँ भद्र सार्थवाह के घर भिक्षा के लिए पहुंची। सुभद्रा ने विपुल अशन-पान-खाद्य आदि का प्रतिलाभ कर आर्यिकाओं से संतानोत्पत्ति के लिए कोई विद्या, मंत्र, वमन, विरेचन, वस्तिकर्म, औषधि आदि मांगी। आयिकाओं ने कहा- हम ऐसी बातें नहीं सुनती हैं, इस सम्बन्ध में उपदेश या विधि बनाना हमारे नियम के प्रतिकूल है। हम तो निर्ग्रन्थ प्रवचन का ही उपदेश देती हैं। आयिकाओं का उपदेश श्रवण कर सुभद्रा श्रमणोपासिका हुई और कुछ समय के बाद उसने सुव्रता आर्या के
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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