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________________ २७६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा पास श्रमण दीक्षा ग्रहण की। किन्तु आर्यिका होने पर भी सुभद्रा का बालकों के प्रति अत्यन्त स्नेह था। वह बच्चों को कभी उबटन लगाती, उनका शृगार करती, उनको भोजनादि कराती। सुव्रता महासती ने सुभद्रा से कहा कि यह कार्य श्रमणमर्यादा के प्रतिकूल है । तुम्हें यह नहीं करना चाहिये। पर अपनी सद्गुरुणी की आज्ञा की अवहेलना करके वह अन्य उपाश्रय में जाकर एकाकी रहने लगी और स्वच्छन्दतापूर्वक बच्चों के साथ पूर्ववत् व्यवहार करने लगी। बहुत वर्षों तक स्वच्छन्द प्रवृत्ति करते हुए उसने श्रमणधर्म का पालन किया। अन्त में अर्धमासिक संलेखना द्वारा आयु पूर्ण किया। उत्तरगुणों में जो दोष लगे उनकी आलोचना न करने से यह सौधर्म सभा में बहुपुत्रिका नामक देवी हुई। यह जब इन्द्र के पास इन्द्रसभा में जाती है तब बहुत से बालक-बालिकाओं की विकूर्वणा करके सभा का मनोरंजन करती है। इसलिए इसे बहुपुत्री देवी (बहुपुत्रिका देवी) कहते हैं। स्वर्ग से च्युत होकर यह बिभेल सन्निवेश में एक ब्राह्मण के घर उत्पन्न होगी। उस समय उसका नाम सोमा होगा। युवावस्था प्राप्त होने पर भानजे के साथ उसका विवाह होगा और बहुत से पुत्र-पुत्रियों की माता बनेगी। वे नाचेंगे, कूदेंगे, हँसेंगे, रोकेंगे, एक-दूसरे को मारेंगे, पीटेंगे, भोजन के लिए एक-दूसरे पर झपटेंगे और उसके शरीर पर कोई वमन करेगा, कोई मल और कोई मूत्र जिससे कि वह परेशान हो जायगी। तब मन में सोचेगी कि इससे तो बंध्याएँ ही ठीक हैं क्योंकि मैं इनसे कितनी परेशान हैं ? उस समय निर्ग्रन्थ श्रमणियां वहाँ आएंगी और उनसे निर्ग्रन्थ प्रवचन को श्रवण कर वह श्रावक के व्रत ग्रहण करेगी। उसके पश्चात् वह श्रमणी बनेगी और ११ अंगों का अध्ययन करके अन्त में मासिक संलेखना से सामान्य देव बनेगी। वहाँ से आयु पूर्ण कर महाविदेह में उत्पन्न होगी और कर्मों को नष्ट कर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होगी। पांचवें अध्ययन में पूर्णभद्र, छठे अध्ययन में माणिभद्र, सातवें में दत्त, आठवें में शिव गृहपति, नवें में बल और दसवें में अनाढिय गृहपति का वर्णन है। इन अध्ययनों में भी वे देव आते हैं, नाटक करते हैं और भगवान से गौतम उनके पूर्वभव के सम्बन्ध में पूछते हैं, आदि एक सदृश वर्णन है।। इस प्रकार पुष्पिका उपांग में स्व-समय और पर-समय के ज्ञान की दृष्टि से कथाओं का संकलन है। कथाओं में कुतूहल तत्त्व की प्रधानता है। सभी आख्यानों में वर्तमान जीवन पर उतना प्रकाश नहीं डाला गया जितना
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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