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________________ २७४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा रणा करते हए चिन्तन किया कि प्रातः वाराणसी के बाहर एक बहुत ही सुन्दर बगीचा लगाऊँगा जिसमें विविध प्रकार के वृक्ष होंगे और रंग-बिरंगे फूल महकते होंगे। प्रात: विचार को आचार के रूप में परिणत किया। पून: एक रात्रि को कुटुम्ब-जागरणा करते हुए उसे विचार उद्भूत हुआ कि प्रात: सभी को भोजनादि कराके गंगानदी के किनारे तापसी प्रव्रज्या ग्रहण करूंगा। प्रातः होने पर उसने दिशाप्रोक्षक तापसों के पास प्रव्रज्या ग्रहण की और यह प्रतिज्ञा भी की कि यावत्-जीवन अन्तररहित छट्ठ-छ8 दिक् चक्रवाल तपस्या करता हुआ सूर्य के अभिमुख भुजाएँ उठाकर सूर्याभिमुख हो आतापना भूमि में तपश्चरण करूगा। प्रथम छट्र के पारणे के दिन वह आतापना भूमि से चलकर बल्कल के वस्त्र धारण कर अपनी कूटी में आया और अपनी टोकरी लेकर पूर्व दिशा की ओर चला। वहाँ उसने सोम महाराज की पूजा की और कंदमूल फल आदि से टोकरी भरकर वह पुनः अपनी कुटी में आया। वहां उसने अपनी वेदी को लीप-पोत कर शुद्ध किया। फिर दर्भ और कलश को लेकर गंगास्नान के लिए गया। तत्पश्चात् आचमन कर देवता और पितरों को जलांजलि दी। दर्भ और पानी का कलश हाथ में लेकर कुटिया में आया। दर्भ, कुश और बालुका से वेदिका बनाई । मंथन काष्ठ से अरणि को घिसकर अग्नि पैदा की और समिध काष्ठ डालकर उसे प्रज्वलित किया। अग्नि की दाहिनी ओर उसने सात वस्तुएँ-सकथ (एक उपकरण), वल्कल, अग्निपात्र, शय्या, कमंडल, दंड और स्वयं को स्थापित किया। घी, मधु, तिल व चावलों द्वारा अग्नि में होम किया और चरु (बलि) पकाकर अग्नि-देवता की पूजा की। उसके बाद अतिथियों को भोजन कराके स्वयं ने भोजन किया। इस प्रकार उसने दक्षिण में यम, पश्चिम में वरुण और उत्तर में वैश्रमण की पूजा की । पुन: एक दिन उसके अन्तर्मानस में विचार उत्पन्न हुआ कि मैं वल्कल के वस्त्र पहन पात्र एवं टोकरी ले काष्ठमुद्रा से मुंह बांध कर उत्तर दिशा की ओर महाप्रस्थान कर अभिग्रह धारण करूगा कि जल, थल, दुर्ग, विषम पर्वत, गर्त या गुफा में गिरकर या स्थित होकर पुन: न उलूंगा। यह चिन्तन कर वह अशोक वृक्ष के नीचे गया, वहाँ पर पात्र, टोकरी एक ओर रखकर वेदी बनाई, स्नान किया, दर्भ आदि जो क्रियाएं थीं उनका अनुष्ठान किया । एक देव ने अन्तरिक्ष में खड़े होकर सोमिल से कहा कि यह तुम्हारा कार्य उचित नहीं है। देव के कथन की वह उपेक्षा करता रहा। किन्तु
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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