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२७० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति में विषय की समानता होने पर भी चन्द्रप्रज्ञप्ति की कुछ विशेषताएं इस प्रकार हैं
(१) चन्द्र की प्रतिदिन की योजनवाली गति का कथन है।
(२) उत्तरायण और दक्षिणायन की वीथियों का पृथक-पृथक विस्तार निकालकर सूर्य और चन्द्रमा की गति का निर्णय किया है जो सूर्यप्रज्ञप्ति में नहीं है।
(३) वीथियों में चन्द्रमा के समचतुरस्र प्रभृति विभिन्न आकारों का खण्डन कर समचतुरस्र गोलाकार का प्रतिपादन किया है।
(४) मानव सभ्यता के प्रारम्भ में श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन जम्बूद्वीप का प्रथम सूर्य पूर्व-दक्षिण-आग्नेय कोण में और द्वितीय सूर्य पश्चिमोत्तर-वायव्य कोण में चला। इसी तरह प्रथम चन्द्रमा पूर्वोत्तर ईशान कोण में और द्वितीय चन्द्रमा नैऋत्य (पश्चिम-दक्षिण) कोण में चला । सूर्यचन्द्र की प्रस्तुत गमन प्रक्रिया ज्योतिष में निरूपित नाडीवृत और कदम्ब पोतवृत्त से मिलती-जुलती है। ज्योतिष की दृष्टि से यह विषय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
(५) छायासाधन और छायाप्रमाण पर से दिनमान का साधन किया गया है जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। यह साधन प्रक्रिया प्रतिभा गणित का मूल स्रोत है जिससे प्रतिभागणित का विकास हुआ।
(६) छायासाधन में कीलकच्छाया और कीलच्छाया का वर्णन है। इसी कीलकच्छाया से शंकुछाया का विकास हुआ है और विद्वानों का मन्तव्य है कि शंकुगणित का विकास भी कीलच्छाया से हुआ।
(७) पुरुषच्छाया का इसमें विस्तृत विवेचन है। पुरुषच्छाया संहिता ग्रन्थों में फलाफल का निर्देश किया गया है। वराहमिहिर के पुरुषच्छाया का मूल स्रोत यही आगम होना चाहिए।
(क) प्रस्तुत आगम में गोल, त्रिकोण और चौकोर वस्तुओं की छाया का वर्णन है जिससे उत्तरकाल में ज्योतिष विषयक गणित का अत्यधिक विकास हुआ है।
(8) इस आगम में चन्द्रमा को स्वत: प्रकाशमान बताया है। उसके घटने-बढ़ने का कारण राहू है। उपसंहार
इस प्रकार ये दोनों आगम ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से बहत ही महत्त्वपूर्ण हैं। इन पर आधुनिक दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है जिससे कि अनेक तथ्य उजागर हो सकें।