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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
ऐसा मानते हैं कि सूर्य पूर्व दिशा में उदय होकर अनन्त आकाश में चला जाता है । यह कोई विमान, रथ या देवता नहीं है किन्तु गोलाकार किरणों का समूह मात्र है जो संध्या समय नष्ट हो जाता है। कितने ही यह मानते हैं कि सूर्य देवता है जो स्वभाव से आकाश में उत्पन्न होता है और सन्ध्या के समय आकाश में अदृश्य हो जाता है। कितने ही कहते हैं कि सूर्य एक देव है और सदा वर्तमान रहता है। प्रातःकाल पूर्व दिशा में उदित होकर सन्ध्या के समय पश्चिम दिशा में पहुँच जाता है और वहाँ से अधोलोक प्रकाशित करता हुआ नीचे की ओर लौट जाता है। आचार्य मलयगिरि ने प्रस्तुत सूत्र की टीका में लिखा है कि 'पृथ्वी को गोल स्वीकार करने वालों को ही यह मत मान्य हो सकता है, जैनों को नहीं । चूंकि वे पृथ्वी को गोलाकार न मानकर असंख्यात द्वीप- समुद्रों से घिरी हुई मानते हैं।' इसके बाद सूर्य के एक मण्डल से दूसरे मण्डल में गमन करने का वर्णन है । सूर्य एक मुहूर्त में कितने क्षेत्र में परिभ्रमण करता है ? इस प्राभृत में अन्य मतों का उल्लेख करके स्वमत का प्रतिपादन किया है ।
तीसरे प्राभृत में चन्द्र, सूर्य द्वारा प्रकाशित किये जाने वाले द्वीपसमुद्रों का वर्णन है और बारह मतान्तरों का निर्देश भी हुआ है।
चतुर्थ प्राभृत में चन्द्र और सूर्य का संस्थान दो प्रकार से बताया है(१) विमान संस्थान ( २ ) प्रकाशित क्षेत्र का संस्थान। दोनों प्रकार के संस्थानों के सम्बन्ध में अन्य १६ मतान्तरों के उल्लेख हैं। स्वमत से प्रत्येक मंडल में उद्योत और ताप क्षेत्र का संस्थान बताकर अन्धकार के क्षेत्र का निरूपण किया है। सूर्य के ऊर्ध्व, अधो एवं तिर्यक् ताप क्षेत्र का परिमाण भी बताया गया है ।
पाँचवें प्राभृत में सूर्य की लेश्याओं का वर्णन है। छठवें प्राभृत में सूर्य के ओज का वर्णन है । दूसरे शब्दों में कहें तो सूर्य सदा एक रूप में अवस्थित रहता है या प्रतिक्षण परिवर्तित होता रहता है ? इस सम्बन्ध में अन्य २५ प्रतिपत्तियाँ हैं । जैनदृष्टि से जम्बूद्वीप में प्रति वर्ष केवल ३० मुहूर्त तक सूर्य का प्रकाश अवस्थित रहता है, शेष समय में अनवस्थित रहता है । क्योंकि प्रत्येक मण्डल पर एक सूर्य ३० मुहूर्त रहता है। इसमें जिस-जिस मंडल पर वह रहता है उस दृष्टि से वह अवस्थित है और दूसरे मंडल की दृष्टि से वह अनवस्थित है ।