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________________ अंगबाह्य आगम साहित्य २६५ भूगोल व खगोल का महत्वपूर्ण कोष कह सकते हैं। वेबर ने सन् १८६८ में 'उवेर डी सूर्यप्रज्ञप्ति' नामक निबन्ध प्रकाशित किया था। डा० आर० शाम शास्त्री ने इस उपांग का 'ए ब्रीफ ट्रान्सलेशन ऑफ महावीराज सूर्यप्रज्ञप्ति' नामक संक्षिप्त अनुवाद किया है। इस आगम में आये हुए दो सूर्य और दो चन्द्र की मान्यता का 'भास्कर' ने अपने सिद्धान्त शिरोमणि ग्रन्थ में और ब्रह्मगुप्त ने अपने 'स्फुट सिद्धान्त' में खंडन किया है; किन्तु डॉ धिबी ने 'जरनल ऑफ द एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल में 'ऑन द सूर्यप्रज्ञप्ति' नामक अपने शोधपूर्ण लेख में प्रतिपादित किया कि ग्रीक लोगों के भारतवर्ष में आगमन के पूर्व उक्त सिद्धान्त सर्वमान्य था। उन्होंने भारतीय ज्योतिष के अति प्राचीन ज्योतिष्क वेदांग ग्रंथ की मान्यताओं के साथ सूर्यप्रज्ञप्ति के सिद्धान्तों की समानता बताई है। सूर्यप्रज्ञप्ति के प्रथम प्राभूत में उल्लेख है कि मिथिला नगरी में जितशत्रु का राज्य था। उस समय भगवान महावीर मिथिला के बाहर मणिभद्र चैत्य में पधारे। धर्मोपदेश करने के पश्चात् गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की। भगवान ने समाधान करते हुए कहा-दिन व रात्रि में मुहर्त ३० होते हैं। इसके साथ ही नक्षत्रमास, सूर्यमास, चन्द्रमास और ऋतुमास के मुहूर्तों की वृद्धि का वर्णन किया । प्रथम से अन्तिम और अन्तिम से प्रथम मण्डल पर्यन्त सूर्य की गति का काल प्रतिपादित करते हुए बताया कि अन्तिम मंडल में सूर्य की एक बार और शेष मंडलों में सूर्य की दो बार गति होती है। उसके पश्चात् आदित्य संवत्सर के दक्षिणायन और उत्तरायण में अहोरात्र के जधन्य तथा उत्कृष्ट मुहूर्त एवं अहोरात्र के मुहूर्तों की हानिवृद्धि का कारण बताया है भरत और ऐरावत क्षेत्र के सूर्य का उद्योत क्षेत्र, आदित्य संवत्सर के दोनों अयनों में प्रथम से अन्तिम और अन्तिम से प्रथम पर्यन्त एक सूर्य की गति का अन्तर और अन्तर के सम्बन्ध में छह अन्य मान्यताएँ, सूर्य द्वारा द्वीप-समुद्रों के अवगाहन संबंध में एक रात-दिन में सूर्य कितने क्षेत्र में परिभ्रमण करता है? मण्डलों की रचना और विस्तार आदि का विवरण है। दूसरे प्राभृत में सूर्य के उदय और अस्त का वर्णन है। यहाँ पर शास्त्रकार ने अनेक अन्य तीथिकों के मतों का उल्लेख किया है। कितने ही १ जिल्द ४६, पृ० १०७-१८१
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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