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अंगबाह्य आगम साहित्य २६१ महाकाल, माणवक और शंख इन निधिरत्नों की प्राप्ति की। इस प्रकार चक्ररत्न अपनी यात्रा समाप्त कर विनीता राजधानी की ओर लौटा। भरत चक्रवर्ती भी षट्खंड पर दिग्विजय कर हस्तिरत्न पर आरूढ़ हो उसके पीछे चले और राजधानी में जा पहुंचे। सेनापति को बुलाकर राज्याभिषेक का आदेश दिया और मांडलिक राजाओं ने उन्हें बधाई दी। सेनापति, पुरोहित, सूपकार, श्रेणी-प्रश्रेणी आदि ने उनका अभिषेक किया। सम्राट् भरत की ऋद्धि का यहाँ पर विस्तार से वर्णन किया गया है।
एक बार चक्रवर्ती भरत आरिसा भवन में गये। वहाँ अनित्य भावना भाते हुए उनको केवलज्ञान हुआ। उसी समय सम्पूर्ण अलंकारों का त्याग कर पंचमुष्टि लोच किया और अन्त में अष्टापद पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया। भरत के कुमार जीवन, मंडलीक राज जीवन, चक्रवर्ती गृहवास जीवन, केवली जीवन और संलेखना के काल पर प्रकाश डाला है।
चतुर्थ वक्षस्कार में चुल्ल हिमवंत का वर्णन है। इसमें सर्वप्रथम, इस पर्वत के बीच अवस्थित पद्म नाम के एक सरोवर का विस्तार से वर्णन किया गया है। गंगा नदी, सिंधु, रोहितांशा नदियों का भी विशद निरूपण है । इस पर्वत पर ११ शिखरों का वर्णन है। हैमवत क्षेत्र का और उसमें शब्दापाती नामक वृत्तवैताढ्य पर्वत का वर्णन है। महाहिमवंत और उस पर्वत के महापद्म नामक सरोवर का वर्णन है। हरिवर्ष, निषध पर्वत, उस पर्वत के तिगिछ नामक सरोवर, महाविदेह क्षेत्र और गंधमादन नामक पर्वत, उत्तरकुरु में यमक नामक पर्वत, जम्बूवृक्ष, महाविदेह क्षेत्र में माल्यवंत पर्वत, कच्छ नामक विजय, चित्रकूट आदि अन्य विजय, देवकूरु, मेरु पर्वत, नंदनवन, सोमनस वन आदि, नीलपर्वत, रम्यक, हिरण्यवत और ऐरावत आदि क्षेत्रों का इसमें बहुत ही विस्तार से वर्णन है। यह वक्षस्कार सभी वक्षस्कारों से बड़ा है।
पांचवें वक्षस्कार में जिन-जन्माभिषेक का वर्णन है। तीर्थंकर का जन्मोत्सव मनाने के लिए दिशा-विदिशाओं से ५६ दिककुमारियां आती हैं। ये चार अंगुल छोड़कर तीर्थंकर की नाभिनाल को काटती है और बाद में तेलमर्दन, सुगंधित उबटन करके गंधोदक, पुष्पोदक, शुद्धोदक से स्नान कराती हैं। अग्निहोम करके रक्षा पोटली बांधकर, पाषाण घोलक कान के पास बजाती हैं और आशीर्वचन व मधुर गीतादि एवं नृत्य करती हैं। शक्रन्द्र का सपरिवार आगमन होता है और वह पाण्डक वन में अभिषेक