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२६० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा मंडल (वर्तुल) बनाते हैं। इस प्रकार संपूर्ण गुफा प्रकाशित हो जाती है और कटक सहित गुफा पार करने में उन्हें कोई नष्ट नहीं उठाना पड़ता। उत्तरार्ध भरत में आपात नाम के किरात रहते थे। वे अनेक भवन, वाहन, दास, दासी, गो-महिष से सम्पन्न थे। उन्होंने असमय में आकाश में बिजली चमकती हुई देखी। वृक्षों को फलता-फूलता व प्रसन्नता का वातावरण देखकर वे चिन्तित हो उठे कि कोई आपत्ति आने वाली है। इसी समय तिमिस्र गुफा के उत्तरद्वार से चक्रवर्ती भरत अपनी विराट सेना के साथ वहाँ पहुँचे । दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध हआ। किरातों ने भरत की सेना को विचलित कर दिया। यह देख सुषेण सेनापति अश्वरत्न पर आरूढ़ हो असिरत्न को हाथ में लेकर किरातों की ओर बढ़ा और उन्हें पराजित किया। किरात सिंधु नदी के तट पर बालुका के संस्तारक पर ऊर्ध्वमुख होकर वस्त्ररहित होकर लेट गये। उन्होंने अष्टमभक्त से अपने कुल-देवता मेघमुख नामक नागकुमार देवों की आराधना की। देवों ने आकर कहा-'यह भरत नामक चक्रवर्ती है। यह किसी से भी जीता नहीं जा सकता और न किसी शस्त्र, अग्नि, मंत्र आदि से इसकी हानि ही हो सकती है । तथापि, तुम लोगों के लिए हम मूसलाधार वर्षा करते हैं।' भरत ने वर्षा की चिन्ता नहीं की और अपने चर्मरत्न पर सवार हो छत्ररत्न से वर्षा को रोककर मणिरत्न के प्रकाश में सात रात्रियां वहाँ पर व्यतीत की। उसके पश्चात् किरात भरत को अजेय समझकर श्रेष्ठ रत्नों का उपहार लेकर शरण में पहुँचे और अपराधों की क्षमायाचना की। उसके पश्चात् भरत ने क्षुद्र हिमवंत पर्वत के सन्निकट पहुँच कर क्षुद्र हिमवंत गिरि कुमार देव की आराधना कर उसे सिद्ध किया। उसके बाद ऋषभक्कुट पर पहुंचकर काकिणी रत्न से पर्वत की भित्ति पर अपना नाम अंकित किया। तत्पश्चात् वैताढ्यपर्वत की ओर लौटा। वहाँ नमि और विनमि विद्याधरों को जीता। विनमि ने भरत चक्रवर्ती को स्त्री रत्न और नमि ने रत्न, कटक और बाहुबंध अर्पित किये । तत्पश्चात् भरत गंगादेवी को साधकर खंड-प्रपात गुफा में पहुँचा और नतमालक देवता को सिद्ध कर गंगा के पूर्व में स्थित निष्कुट प्रदेश को जीता। सुषेण सेनापति ने खंडप्रपात गुफा के कपाटों का उद्घाटन किया और भरत ने काकिणी रत्न से मंडल बनाये । बाद में भरत ने गंगा के पश्चिमी तट पर विजय स्कन्धावार निवेश स्थापित कर नैसर्प, पाण्डुक, पिंगलक, सर्वरत्न, महापद्म, काल,