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________________ अंगबाह्य आगम साहित्य २५६ तो वह अत्यन्त आल्हादित हुआ। उसने सिंहासन से उठकर एक शाटिका का उत्तरासन कर हाथ जोड़कर चक्ररत्न को प्रणाम कर नगर को सुसज्जित किया और सपरिवार आयुधशाला में पहुँचा और उसकी अर्चना की। नगर में आठ दिन तक उत्सव मनाया गया। उसके पश्चात् चक्ररत्न ने विनीता से गंगा के दक्षिणी तट पर पूर्व दिशा में स्थित मागध तीर्थ की ओर प्रयाण किया। सम्राट भरत भी चतुरंगिणी सेना से सुसज्जित होकर हस्तिरत्न पर आरूढ़ होकर गंगा के दक्षिणी तट के प्रदेशों पर विजयवैजयन्ती फहराता हुआ चक्ररत्न के पीछे चलकर मागध तीर्थ में आया और हस्तिरत्न से उतर कर दर्भ के संथारे पर बैठकर मागध नामक देव की आराधना की। फिर अश्वरथ पर सवार होकर चक्ररत्न का अनुगमन करते हुए लवणसमुद्र में प्रवेश किया। वहां पहुंच कर मगध तीर्थाधिपति देव के भवन में एक बाण मारा। बाण को देखकर देव एक क्षण को तो उत्तेजित हो गया किन्तु बाण पर लिखे हुए भरत चक्रवर्ती के नाम को पढ़कर उसे ध्यान आया कि भरत नामक चक्रवर्ती का जन्म हुआ है। वह शीघ्र ही भरत के पास पहुँचा और बधाई देकर निवेदन किया कि 'देवानुप्रिय ! मैं आपका आज से आज्ञाकारी सेवक हूँ। मेरे योग्य सेवा का आदेश दें।' भरत चक्रवर्ती अपने रथ को पून: लौटाते हैं और विजय स्कन्धावार निवेश में पहुंचकर आठ दिन का उत्सव मनाते हैं। वहाँ से वरदाम तीर्थ आते हैं और वरदाम तीर्थ के कुमारदेव को अपने अधीन करते हैं । फिर प्रभास तीर्थ के देव को भी अपने वश में करते हैं । इसी तरह सिंधुदेवी, वैतादयगिरि कुमार व कृतमाल देव को भी साधते हैं। उसके पश्चात् चक्रवर्ती भरत ने अपने सुषेण नामक सेनापति को सिन्धु नदी के पश्चिम में स्थित निष्कुट प्रदेश को जीतने के लिए भेजा । सुषेण अत्यन्त पराक्रमी व म्लेच्छ भाषाओं में निष्णात था। उसने हाथी पर बैठकर सिन्धु नदी के किनारे के प्रदेशों को जीता और नौका से नदी को पारकर सिंहल, बर्बर, अंगलोक, चिलायलोक, यवनद्वीप, आर्बक, रोमक, अलसंड, पिक्खुल, कालमुख और जोनक नामक म्लेच्छों को, उत्तर वैताढ्य में रहने वाली म्लेच्छ जाति, दक्षिण-पश्चिम से लेकर सिंधु सागर कच्छ देश को विजय किया। उसके पश्चात् सुषेण सेनापति तिमिस्र गुफा के दक्षिणद्वार के कपाटों का उद्घाटन करता है और भरत चक्रवर्ती अपने मणिरत्न को लेकर तिमिस्र गुफा की दीवार पर काकिणीरत्न से ४६
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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