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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
एक बार वे विहार करते हुए पुरिमताल नगर के शकटमुख उद्यान में आये और वहीं न्यग्रोध ( वट) वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हो गये । उन्हें केवलज्ञान, केवलदर्शन की उपलब्धि हुई । भगवान ऋषभदेव ने पाँच महाव्रत और षट् जीवनिकाय का उपदेश दिया। चतुविध संघ की संस्थापना की। उनके मुख्य गणधर ऋषभसेन थे। उनके श्रमण श्रमणियों का पूरा विवरण दिया गया है। भगवान ऋषभ के संहनन, संस्थान, ऊँचाई, कुमारकाल, राज्यकाल, अनगार प्रव्रज्याकाल, छद्मस्थ जीवन, केवली जीवन आदि का वर्णन है । अन्त में अष्टापद ( कैलाश पर्वत पर श्रमणों के साथ मुक्त हुए ।
दुषमासुषमा नामक चौथे आरे में २३ तीर्थंकर, ११ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, वासुदेव उत्पन्न हुए। दुषमा नामक पाँचवें आरे में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट शतायु से अधिक उम्र वाले लोग होंगे। इस आरे के अन्त में चारित्रधर्म, राष्ट्रधर्म आदि का नाश जायगा । दुषमादुषमा नामक छठवें आरे के अन्त में भयंकर वायु प्रवाहित होगी। दिशाएँ धूम्र और धूलि से आच्छन्न हो जायेंगी । आकाश से अग्नि और पत्थरों की वर्षा होगी जिससे मानव, पशु, पक्षी और वनस्पति नष्ट हो जायेंगे। केवल एक वैताद्यपर्वत अवशेष रहेगा। इस काल के मानव जो बचे रहेंगे वे वैताढ्य पर्वत की गुफाओं में रहेंगे। मांस, मत्स्य और मृत शरीर आदि का भक्षण कर अपने जीवन का निर्वाह करेंगे। उनकी आयु अधिक से अधिक २० वर्ष की होगी ।
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उसके पश्चात् उत्सर्पिणी काल प्रारम्भ होगा जिसमें पुन: मानव के जीवन में सुख का समुद्र धीरे-धीरे तरंगित होने लगेगा । उत्सर्पिणी के दुषमाकाल में पुष्कर संवर्तकमेघ, क्षीरमेघ, घृतमेघ, अमृतमेघ, रसमेघ की वर्षा होगी जिससे हरियाली लहलहाने लगेगी । मानव मांसाहार का पूर्णरूप से निषेध करेगा । यहाँ तक कि मांसाहारियों की छाया तक का स्पर्श भी वह न करेगा। उसके पश्चात् दुषमासुषमा और सुषमादुषमा का वर्णन है । उत्सर्पिणी काल के इन आरों में भी २४ तीर्थंकर होंगे। तत्पश्चात् सुषमा और सुषमा- सुषमा आरे का वर्णन है ।
तृतीय वक्षस्कार में भरत चक्रवर्ती का विस्तार से वर्णन है । भरत चक्रवर्ती विनीता नगरी में राज्य करते थे । उनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । आयुधशाला के अध्यक्ष ने जब यह संवाद भरत को सुनाया