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अंगबाह्य आगम साहित्य २५७
इसी प्रकार अडडांग, अडड, अववांग, अवव, हूहूकांग, हूहूक, उत्पलांग, उत्पल से लेकर शीर्षपहेलिकांग और शीर्षपहेलिका तक उत्तरोत्तर चौरासी लाख गुणित जानना चाहिये। ये सभी संख्याएँ मिलकर १९४ अंक तक हैं और वह संख्यात गणना के अन्तर्गत आती हैं। पल्योपम और सागरोपम आदि कालमाप असंख्यात काल गणना के अन्तर्गत हैं । इन सबसे ऊपर अन्त-विहीन जो राशि है वह अनन्त कहलाती है ।
चार कोटाकोटि सागरोपम का सुषमासुषमा नामक प्रथम आरा है । उस समय में दश प्रकार के कल्पवृक्ष बताये गये हैं-मत्तांग, भृतांग, त्रुटितांग, दीपशिखा, ज्योतिषिक, चित्रांग, चित्ररस, मणिअंग, हागार और अणिगण । इन कल्पवृक्षों से इच्छित पदार्थों की प्राप्ति होती है। इस समय के पुरुषों और स्त्रियों का, उनके आहार और निवासस्थान का एवं उनकी भवस्थिति का वर्णन है । उसके पश्चात् सुषमा नामक दूसरे आरे का वर्णन किया गया है और उसके बाद सुषमादुषमा नामक तीसरे आरे का वर्णन है। इस आरे में सुमति, प्रतिश्रुति, सीमंकर, सीमंधर, क्षेमंकर, क्षेमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, प्रसेनजित्, मरुदेव, नाभि और वृषभ नाम के १५ कुलकर बताये हैं । उनमें से एक से पांच तक के कुलकरों ने 'हा कार' दंडनीति का प्रचलन किया, छह से दश तक के कुलकरों ने 'म कार' नीति का प्रचार किया और ११ से १५ तक के कुलकरों ने 'धिक् कार' नीति का उपयोग किया ।
नाभि कुलकर की मरुदेवी भार्या के गर्भ से ऋषभदेव का जन्म हुआ । वे कौशल के निवासी थे। वे प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्मचक्रवर्ती थे। उन्होंने अपने पुत्र भरत आदि को ७२ और ब्राह्मी, सुन्दरी पुत्रियों को ६४ कलाओं और अनेक शिल्पों का उपदेश दिया । अन्त में अपने पुत्रों को राज्य देकर सर्वस्व का त्याग कर केशों का लुंचन कर एक देवदूष्य वस्त्र को धारण कर श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की।
ऋषभदेव एक वर्ष तक वस्त्रधारी रहे। तत्पश्चात् उसका भी त्यागकर, अनेक उपसर्गों को समभाव से जीतकर, पाँच समिति, तीन गुप्ति का सम्यक् पालन कर, शान्तभाव से सुख-दुःख, जीवन-मरण, मान-अपमान व सम्पत्तिविपत्ति में समभावपूर्वक विचरण करने लगे ।