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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
होते हुए भी जो लोमाहार आदि आहार का सतत ग्रहण होता रहता है। वह अनाभोग निर्वर्तित है । अध्यवसायों की चर्चा भी प्रस्तुत पद में की गई है ।
पैंतीसव पद वेदनापद है । २४ दंडकों में जीवों को अनेक प्रकार की वेदना का जो अनुभव होता है उसकी विचारणा इस पद में की गई है । वेदना के अनेक प्रकार बताये हैं जैसे कि ( १ ) शीत, उष्ण, शीतोष्ण (२) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव ( ३ ) शारीरिक, मानसिक और उभय ( ४ ) साता, असाता, सातासाता (५) दु:खा, सुखा, अदुःखा - असुखा ( ६ ) आभ्युपगमकी, औपक्रमिकी (७) निदा, अनिदा आदि । संज्ञी की वेदना निदा है और असंज्ञी की वेदना को अनिदा कहा है।
छत्तीसवें पद का नाम समुद्घातपद है। प्रस्तुत पद में सात प्रकार समुद्घातों का अनेक प्रकार से दंडकों में प्रतिपादन किया है। यहाँ पर वेदना, कषाय, मरण, वैक्रिय, तैजस, आहारक और केवली ये समुद्घात के सात प्रकार बताये हैं। समुद्घात की व्याख्या करते हुए आचार्य मलयगिरि कहते हैं कि उन उन वेदना आदि के अनुभव रूप परिणामों के साथ आत्मा का ऐक्यभाव अर्थात् तदितर परिणामों में से विरत होकर वेदनीय आदि के 'बहुत से प्रदेशों को उदीरणा द्वारा उदय में लाकर और भोग करके उनकी निर्जरा करना - यह समुद्घात है । प्रस्तुत पद में किस कर्म से कौनसा समुद्घात होता है उसका विवेचन किया गया है। समय की मर्यादा को लेकर बताया है कि केवली समुद्घात आठ समय का होता है। शेष दूसरे असंख्यात समय वाले अंतर्मुहूर्त काल के होते हैं। जीवों में कितने होते हैं इसका स्पष्टीकरण करते हुए प्रथम चार, भवनपति, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, वाणव्यंतर, निक में प्रथम पाँच, वायु के सिवाय एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय में प्रथम के तीन, वायु में प्रथम के चार और मनुष्यों में सातों समुद्घात होते हैं। उपसंहार
सात में से किन
कहा है-नारक में ज्योतिष्क और वैमा
इस प्रकार पत्रवणा में साहित्य, धर्म, दर्शन, इतिहास और भूगोल के अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का चिन्तन है। इसमें आलंकारिक प्रयोग कम होने पर भी जैन पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग विशेष रूप से हुआ है। कर्म आर्य, शिल्पआर्य, भाषाआर्य, आदि अनेक तथ्य इसमें उजागर हुए हैं।
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