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________________ अंगबाह्य आगम साहित्य २५३ चतुरिन्द्रिय जीवों तक, वाणव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक ये असंयत होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयत और संयतासंयत होते हैं। मनुष्य में प्रथम के ३ प्रकार होते हैं और सिद्धों में संयम का चौथा प्रकार नोसंयतनोअसंयतनोसंयतासंयत है। संयम के आधार से जीवों के विचार करने की पद्धति महत्त्वपूर्ण है। चौंतीसवें पद का नाम 'प्रविचारणा' पद है। प्रस्तुत पद में 'पवियारण' (प्रविचारण) शब्द का जो प्रयोग हआ है उसका मूल 'प्रवीचार' शब्द में है। प्रस्तुत पद के प्रारम्भ में जहाँ द्वार का निरूपण है वहाँ परियारणा और मूल में परियारणया ऐसा पाठ है। क्रीड़ा, रति, इन्द्रियों के कामभोग और मैथुन के लिए संस्कृत में प्रवीचार अथवा प्रविचारणा और प्राकृत में परियारणा अथवा पवियारणा शब्द का प्रयोग हुआ है। परिचारणा कब, किसको और किस प्रकार की सम्भव है, इस विषय की चर्चा प्रस्तुत पद में २४ दंडकों के आधार से की गई है। नारकों के सम्बन्ध में कहा है कि वे उपपात क्षेत्र में आकर तुरन्त ही आहार के पुद्गल ग्रहण करना प्रारम्भ कर देते हैं। उससे उनके शरीर की निष्पत्ति होती है और पुद्गल अंगोपांग, इन्द्रियादि रूप से परिणत होने के बाद वे परिचारणा शुरू करते हैं अर्थात् शब्दादि सभी विषयों का उपभोग करना शुरू करते हैं। परिचारणा के बाद विकुर्वणा-अनेक प्रकार के रूप धारण करने की प्रक्रिया करते हैं। देवों में इस क्रम में यह अन्तर है कि उनकी विकूर्वणा करने के बाद परिचारणा होती है। एकेन्द्रिय जीवों में परिचारणा नारक की तरह है किन्तु उनमें विकुर्वणा नहीं है सिर्फ वायुकाय में विकुर्वणा है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में एकेन्द्रिय की तरह, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य में नारक की तरह परिचारणा है। प्रस्तुत पद में जीवों के आहार ग्रहण के दो भेद आभोगनिवर्तित और अनाभोगनिर्वतित-बताकर भी चर्चा की गई है। एकेन्द्रिय के अतिरिक्त सभी जीव आभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिर्वतित आहार लेते हैं परन्तु एकेन्द्रिय में सिर्फ अनाभोगनिर्वतित ही है। जीव अपनी इच्छा से अपने उपयोगपूर्वक आहार लेते हैं वह आभोगनिर्वतित है और इच्छा न १ (क) कायप्रवीचारो नाम मैथुनविषयोपसेवनम् (ख) प्रवीचारो मैथुनोपसेवनम् -तत्त्वार्थभाष्य ४-८ ---सर्वार्थ सिद्धि ४-७
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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