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२५२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा वह उपयोग है। उपयोग और पश्यत्ता इन दोनों की प्ररूपणा जीवों के २४ दंडकों में निर्दिष्ट की गई है। अवधि पद में भेद, विषय, संस्थान, बाह्यआभ्यंतर अवधि, देशावधि, क्षय-वृद्धि, प्रतिपाति-अप्रतिपाती इन सात मुद्दों से अवधिज्ञान के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा-विचारणा की गई है। इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना होने वाले रूपी पदार्थों का ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। इसके दो भेद हैं-एक तो जन्म से प्राप्त होने वाला औपपातिक, जो देव और नारकी के होता है। दूसरा कर्म के क्षयोपशम से होने वाला, जो संज्ञी मनुष्य और संज्ञी तिथंच पंचेन्द्रिय को होता है। वह क्षायोपशमिक कहलाता है।
इकत्तीसवें संज्ञीपद में सिद्ध सहित सम्पूर्ण जीवों को संज्ञी, असंज्ञी और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी इन तीन भेदों में विभक्त करके विचार किया गया है। सिद्ध न तो संज्ञी हैं और न असंज्ञी इसलिए उनकी संज्ञा नोसंज्ञीनोअसंज्ञी दी गई है। मनुष्य में भी जो केवली हैं वे भी सिद्ध समान, इसी संज्ञा वाले हैं। क्योंकि मन होने पर भी वे उसके व्यापार से ज्ञान प्राप्त नहीं करते । अन्य मनुष्य संज्ञी और असंज्ञी दोनों प्रकार के हैं। एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के जीव असंज्ञी हैं। नारक, भवनपति, वाणव्यंतर और पंचेन्द्रिय तिर्यंच संज्ञी और असंज्ञी दोनों प्रकार के हैं। ज्योतिष्क और वैमानिक सिर्फ संज्ञी ही है।
संज्ञा शब्द के टीकाकार ने दो अर्थ किये हैं--(१) मतिज्ञान विशेष, जिसका एक प्रकार जातिस्मरण है, जिस ज्ञान में स्मरण-पूर्व अनुभव का स्मरण आवश्यक हो ऐसा ज्ञान संज्ञा है। (२) संज्ञा में संज्ञी-असंज्ञी अर्थात् मन वाले और बिना मन वाले ऐसा भी अर्थ बृहत्कल्प, विशेषावश्यक भाष्य आदि में हुआ है। 'सम्यग्जानाति इति संज्ञम् -मनः, तदस्यास्तीति संज्ञी। नैकेन्द्रियादिनाऽतिप्रसंग: तस्य मनसोऽभावात् । अथवा शिक्षाक्रियोपदेशालापग्राही संज्ञी' इस प्रकार धवला में भी संज्ञी शब्द की दो प्रकार की व्याख्या की गई है। संज्ञा शब्द का वास्तविक कौन सा अर्थ अभिप्रेत है यह खोज का विषय है।
बत्तीसवें पद का नाम 'संयत' है। इसमें संयत, असंयत, संयतासंयत और नोसंयतनोअसंयत नोसंयतासंयत--इस प्रकार संयम के चार भेदों को लेकर समस्त जीवों का विचार किया गया है। नारक, एकेन्द्रिय से लेकर