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२५० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपात ये पाँच क्रियाएँ हैं। इनका विस्तार से निरूपण है।
२३ से २७ तक के कर्मप्रकृति, कर्मबंध, कर्मबंधवेद, कर्मवेदबंध और कर्मवेदवेदक इन पांच पदों में कर्म सम्बन्धी विस्तार से चर्चा-विचारणा की गई है। प्रस्तुत पदों में कर्म प्रकृति के मूल आठ भेद-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय का और उनके उत्तरभेदों (उत्तरप्रकृतियों) का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है।
कर्म की आठों प्रकृतियाँ नैरयिकादि जीवों के २४ दंडकों में होती हैं। जीव किस प्रकार आठों प्रकृतियों का बंध करते हैं, इसका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि ज्ञानावरणीय का उदय होता है तब दर्शनावरणीय का आगमन होता है। दर्शनावरणीय के उदय से दर्शनमोह का और दर्शनमोह के उदय से मिथ्यात्व का और मिथ्यात्व का उदय होने पर आठों कर्मों का आगमन होता है। सभी जीवों के सम्बन्ध में आठों कर्मों के आगमन का यही क्रम है।
जीवों के जो ज्ञानावरणादि कर्म का बंध होता है, उसके दो कारण हैं-राग और द्वेष । राग में माया और लोभ का तथा द्वेष में क्रोध और मान का समावेश किया गया है। कर्मों के वेदन-अनुभव के सम्बन्ध में बतलाते हुए कहा है कि वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चार कर्म तो २४ दंडक में जीव वेदते ही हैं परन्तु ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार कर्मों को जीव वेदते भी हैं और नहीं भी वेदते। यहाँ पर 'वेदना' के लिए 'अनुभाव' शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रस्तुत पदों में कर्म के बद्ध, स्पृष्ट, संचय और कर्मों के अनुभाव का गति, स्थिति, भव, पुद्गल आदि की दृष्टि से विस्तारपूर्वक विचार किया गया है।
अट्ठाईसवें पद का नाम आहारपद है। इसमें जीवों की आहार सम्बन्धी विचारणा दो उद्देशकों के द्वारा की गई है। प्रथम उद्देशक में ११ द्वारों से और दूसरे उद्देशक में १३ द्वारों से आहार सम्बन्धी प्रतिपादन किया गया है। २४ दंडकों में जीवों का आहार सचित्त होता है अथवा अचित्त या मिथ ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है कि वैक्रिय शरीरधारी जीवों का आहार अचित्त ही होता है। परन्तु औदारिक शरीरधारी जीव तीनों प्रकार का आहार ग्रहण करते हैं। नारकादि २४ दंडकों में सात द्वारों से आहार सम्बन्धी विचारणा की गई है। जीव आहारार्थी होते हैं