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अंगबाह्य आगम साहित्य
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इक्कीसव 'अवगाहना संस्थान' पद है। इस पद में जीवों के शरीर के भेद, संस्थान आकृति प्रमाण शरीर का माप, शरीर निर्माण के लिए पुद्गलों का चयन, जीव में एक साथ कौन-कौन से शरीर होते हैं, शरीरों के द्रव्य और प्रदेशों का अल्पबहुत्व और अवगाहना का अल्पबहुत्व इन सात द्वारों से शरीर के सम्बन्ध में विचारणा की गई है। गति आदि अनेक द्वारों से ' में जीवों की विचारणा हुई है पर उनमें शरीर द्वार नहीं है । यहाँ पर प्रथम विधि द्वार में शरीर के पाँच भेदों-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण का वर्णन करके औदारिकादि शरीरों के भेदों की चर्चा विस्तार से की है।
बाईस क्रियापद है। प्राचीन युग में सुकृत, दुष्कृत, पुण्य, पाप, कुशल, अकुशल कर्म के लिए 'क्रिया' शब्द व्यवहृत होता था और क्रिया करने वालों के लिए क्रियावादी शब्द का प्रयोग किया जाता था । आगम व पालि पिटकों में प्रस्तुत अर्थ में क्रिया का प्रयोग अनेक स्थलों पर हुआ गई है। कर्म अर्थात्
है । प्रस्तुत पद में क्रिया-कर्म की विचारणा की वासना या संस्कार, जिनके कारण पुनर्जन्म होता है । जब हम आत्मा के जन्म-जन्मान्तर की कल्पना करते हैं तब उसके कारणरूप कर्म की विचा रणा अनिवार्य हो जाती है। महावीर और बुद्ध के समय क्रियावाद शब्द कर्म को मानने वालों के लिए प्रचलित था इसलिए क्रियावाद और कर्मवाद दोनों शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची हो गये थे । कालक्रम से क्रियावाद शब्द के स्थान पर कर्मवाद ही प्रचलित हो गया । इसका एक कारण यह भी है कि कर्म-विचार की सूक्ष्मता ज्यों-ज्यों बढ़ती गई त्यों-त्यों वह क्रिया- विचार से दूर भी होता गया । यह क्रिया विचार कर्म- विचार की पूर्व भूमिका रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है। प्रज्ञापना में क्रियापद, सूत्रकृतांग में क्रियास्थान और भगवती में अनेक प्रसंगों में क्रिया और क्रियावाद की चर्चा की गई है। इससे ज्ञात होता है कि उस समय क्रियाचर्चा का कितना महत्त्व था । प्रस्तुत पद में क्रिया के पांच भेद - अहिंसा और हिंसा के विचार को लक्ष्य में रखकर किये हैं । दूसरे प्रकार से १८ पापस्थानकों को लेकर क्रिया की विचारणा की गई है । जीवों में कौन सक्रिय और कौन अक्रिय है, इसका विवेक भी किया गया है। नारकादि २४ दण्डकों के जीवों में प्राणातिपात आदि क्रिया १८ पापस्थानकों के कारण कर्म की कितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है, उसकी चर्चा - विचारणा की गई है।