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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
गया है। स्थिति पद में तो सिर्फ आयु का ही विचार है जबकि प्रस्तुत पद में धर्मास्तिकाय आदि अजीव द्रव्य जो कि 'कार्य' रूप में जाने जाते हैं, उनका उस-उस रूप में रहने के काल का ( स्थिति का ) भी विचार किया गया है ।
इसमें जीव, गति, इन्द्रिय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, आहार, भाषक, परित, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भवसि - fas, अस्तिकाय और चरिम की अपेक्षा से कायस्थिति का वर्णन है । वनस्पति की कायस्थिति 'असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा' बताई है। इसका अर्थ यह है कि कोई भी वनस्पति का जीव अनादिकाल से वनस्पति रूप में नहीं रह सकता । उसने वनस्पति के अतिरिक्त अन्य कोई भव किया होना चाहिये, इस भ्रांति के निरसन के लिए वनस्पति के व्यवहारराशि और अव्यवहारराशि ये दो भव बताये हैं तथा निगोद के जीवों के स्वरूप का वर्णन किया है। माता मरुदेवी का जीव अनादिकाल से वनस्पति में था, इसका उल्लेख प्रमाण रूप में टीका में दिया है । "
उन्नीसवाँ 'सम्यक्त्व' पद है। इसमें जीवों के २४ दंडकों में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि के सम्बन्ध में विचार करते हुए बताया है कि सम्य मिथ्यादृष्टि केवल पंचेन्द्रिय होता है और एकेन्द्रिय मिध्यादृष्टि ही होता है । द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक सम्य मिथ्यादृष्टि नहीं होते हैं । षट्खंडागम में असंज्ञी पंचेन्द्रिय को मिध्यादृष्टि ही कहा है । सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक होते हैं ।
बीसवें पद का नाम 'अन्तक्रिया' है। भव का अन्त करने वाली क्रिया 'अन्तक्रिया' कहलाती है । यह क्रिया दो अर्थ में व्यवहृत हुई है-नवीन भव अथवा मोक्ष । दूसरे शब्दों में मोक्ष और मरण इन दोनों अर्थों में अन्तक्रिया शब्द का प्रयोग हुआ है । इस अन्तक्रिया का विचार जीवों के नरकादि २४ दंडकों में किया गया है। इस पद में यह बताया गया है कि सिर्फ मनुष्य ही अन्तक्रिया यानि मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। इसका वर्णन छह द्वारों से विशद रूप से किया है। दूसरी पर्याय में अन्तक्रिया का अर्थ मरण से हैं । अनन्तरागत या परंपरागत से नारकादि जीव अंतक्रिया कर
सकते हैं, इसका निरूपण विस्तार से किया गया है।
१ प्रज्ञापनाटीका पत्र ३७६ और पत्र ३८५ ।