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________________ अंगबाह्य आगम साहित्य २४७ हैं। प्रथम उद्देशक में नारक आदि २४ दंडकों के सम्बन्ध में आहार, शरीर, श्वासोच्छवास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया, आयु आदि का वर्णन है। सलेशी जीवों की अपेक्षा नारकादि २४ दंडकों में उक्त, सम, विसम का विवेचन है। द्वितीय उद्देशक में लेश्या के छह भेद बताकर नरकादि चार गति के जीवों में कितनी-कितनी लेश्याएं होती हैं, उसका निरूपण है। तृतीय उद्देशक में जन्म और मृत्युकाल की लेश्या सम्बन्धी चर्चा है और उन लेश्या वाले जीवों के अवधिज्ञान की मर्यादा और कितना ज्ञान होता है इस सम्बन्ध में प्रकाश डाला है। चतुर्थ उद्देशक में एक लेश्या का दूसरी लेख्या में परिणमन होने पर उसके वर्ण, गंध, रस, स्पर्श की चर्चा है। पांचवें उद्देशक में एक लेश्या का दूसरी लेश्या में देव नारक की अपेक्षा से परिणमन नहीं होता यह बताया है। छठे उद्देशक में मनुष्य सम्बन्धी लेश्या का विचार किया गया है। लेश्या का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है कि कषाय अनुरंजित योग प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं। यह परिभाषा छद्मस्थ सम्बन्धी है । शुक्ल लेश्या तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवली को भी है अतः वहाँ योग की प्रवृत्ति ही लेण्या है। कषाय तो केवल उसमें तीव्रता आदि का संनिवेश करती है। जीव को लेश्या की प्राप्ति के बाद अन्तर्महर्त बीत जाने पर और अन्तमहर्त शेष रहने पर जीव परलोक में जन्म लेता है। क्योंकि मृत्युकाल में आगामी भव की और उत्पत्तिकाल में अतीत भव की लेश्या का अन्तर्मुहूर्त काल तक होना आवश्यक है। जीव जिस लेश्या में मरता है अगले भव में उसी लेश्या में जन्म लेता है। अठारहवें पद का नाम कायस्थिति है। इसमें जीव और अजीव दोनों अपनी-अपनी पर्याय में कितने काल तक रहते हैं इस पर चिन्तन किया है। चतुर्थ स्थितिपद और इस पद में अन्तर यह है कि स्थितिपद में तो २४ दंडकों में जीवों की भवस्थिति अर्थात् एक भव की अपेक्षा से आयुष्य का विचार है जबकि इस पद में एक जीव मरकर सतत उसी भव में जन्म लेता रहे तो ऐसे सब भवों की परम्परा की काल-मर्यादा अथवा उन सभी भवों के आयुष्य का कुल जोड़ कितना होगा, इसका विचार कायस्थिति पद में किया १ आवश्यकचूर्णि में जिनदास महत्तर ने कहा है "लेण्याभिरात्मनि कर्माणि संश्लिष्यन्ते । योगपरिणामो लेश्या । जम्हा अयोगि केवली अलेस्सो।" २ "जल्लेसाई दब्वाइं आयइत्ता कालं करेइ, तल्लेसेसु उववज्जइ।"
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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