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________________ २४६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा को ही माना गया है। साथ ही उपचयन, बंध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा में चारों कषाय ही मुख्य रूप से कारण बताये गये हैं। पन्द्रहवां इन्द्रियपद है। यहाँ इन्द्रियों के सम्बन्ध में दो उद्देशकों में चिन्तन किया है। पहले उद्देशक में २४ द्वार हैं और दूसरे में १२ द्वार हैं। इन्द्रियाँ पांच हैं-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिव्हेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय । इनकी चर्चा २४ दंडकों में की गई है। जीवों में इन्द्रियों के द्वारा अवग्रहण-परिच्छेद, अवाय, ईहा और अवग्रह--अर्थ और व्यंजन दोनों प्रकार से, २४ दंडकों में निरूपण किया गया है। चार इन्द्रियों का व्यंजनावग्रह होता है, चक्षु का नहीं। अर्थावग्रह छह प्रकार का है, क्योंकि वह पाँच इन्द्रिय और छठवें नोइन्द्रिय-मन से भी होता है। इसी प्रकार इन्द्रियों के द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय दो भेद किये हैं। इन्द्रियोपचय, इन्द्रियनिवर्तित, इन्द्रियलब्धि आदि द्वारों से द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय की २४ दंडकों के साथ विचारणा की गई है। सोलहवाँ प्रयोग पद है। मन, वचन और काय के द्वारा आत्मा के व्यापार को 'योग' कहा गया है तथा उसी योग का वर्णन प्रस्तुत पद में प्रयोग शब्द से किया गया है। यह आत्म-व्यापार इसी कारण कहा जाता है कि आत्मा के अभाव में तीनों की क्रिया नहीं हो सकती। जैनदृष्टि से तीनों पुदगलमय हैं और पुद्गल की जो स्वाभाविक गति है वह आत्मा के बिना भी उसमें हो सकती है किन्तु जब पुद्गल मन, वचन, काय के रूप में परिणत हुए हों तब आत्मा के सहयोग से जो विशिष्ट प्रकार का व्यापार होता है वह अपरिणत में असंभव है। पुद्गल का मन आदि में परिणमन होना, वह भी आत्मा के कर्माधीन ही है। इसीलिए उनके व्यापार को आत्मव्यापार कहा जाता है। उस व्यापार अर्थात् प्रयोग के १५ भेदों का निर्देश करके सामान्य जीव में और विशेष रूप से २४ दंडक में प्रयोग की योजना करके बतलाई है। इस आयोजना में अमुक प्रयोग हो तब उसके साथ अन्य कितने प्रयोग हो सकते हैं, इसका भी विस्तार से विवेचन किया है। सत्रहवां लेश्यापद है। इसमें लेश्या का वर्णन करने वाले छह उद्देशक १ प्रयोगः परिस्पन्दक्रिया, आत्मव्यापार इत्यर्थः -प्रज्ञापनाटोका पत्र ३१७ आत्मप्रवृत्त कर्मादाननिबन्धनवीर्योत्पादो योगः। अथवा आत्मप्रदेशानां संकोच विकोचो योगः ।" -धवला, भाग १, पृ०१४०
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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