SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा कितने समय तक होता है उसकी विचारणा इसमें होने से इस पद का नाम 'स्थिति' पद दिया है। इसमें जीवों की जो विविध पर्यायें होती हैं उनकी आयु का स्थिति का-विवेचन है। जीव द्रव्य तो नित्य है परन्तु वह जो अनेक प्रकार के रूप-नानाविध जन्म धारण करता है वे अनित्य हैं। इसलिए पर्यायें कभी तो नष्ट होती ही हैं । अतएव उनकी स्थिति का विचार करना आवश्यक है जो प्रस्तुत पद में किया गया है । जघन्य आयु कितनी और उत्कृष्ट आयु कितनीइस तरह दो प्रकार से उसका विचार केवल संसारी जीवों और उनके भेदों को लेकर किया है क्योंकि सिद्ध तो 'सादीया अपज्जवसिता' होने से उनकी आयु का विचार अप्राप्त होने से नहीं किया है। अजीव द्रव्य की पर्यायों की स्थिति का विचार भी इसमें नहीं है। क्योंकि उनकी पर्याय जीव की आयु की तरह मर्यादित काल में रखी नहीं जा सकती है, इसलिए उसे छोड़ दिया गया हो यह स्वाभाविक है। प्रस्तुत पद में प्रथम जीवों के सामान्य भेदों को लेकर उनकी आयु का निर्देश है। बाद में उसके अपर्याप्त और पर्याप्त भेदों का निर्देश है। उदाहरणार्थ पहले तो सामान्य नारक की आयु और उसके पश्चात् नारक के अपर्याप्त और उसके बाद पर्याप्त की आयु का वर्णन है। इसी क्रम से प्रत्येक नारक आदि को लेकर सर्व प्रकार के जीवों के आयुष्य का विचार किया गया है। स्थिति की जो सूची है उसके अवलोकन से ज्ञात होता है कि पुरुप से स्त्री की आयु कम है । नारक और देवों का आयुष्य मनुष्य और तिर्यंच से अधिक है। एकेन्द्रिय जीवों में अग्निकाय का आयुष्य सबसे न्यून है। यह प्रत्यक्ष में भी अनुभव में आता है क्योंकि अग्नि अपेक्षतया शीघ्र बुझ जाती है। एकेन्द्रियों में पृथ्वीकाय का आयुष्य सबसे अधिक है। द्वीन्द्रिय से तेइन्द्रिय जीवों का आयुष्य कम मानने का क्या कारण है यह विचारणीय है। फिर चतुरिन्द्रिय का आयुष्य तेइन्द्रिय से अधिक है परन्तु द्वीन्द्रिय से कम है यह भी एक रहस्य है और संशोधन का विषय है। __ प्रस्तुत पद में अजीव की स्थिति का विचार नहीं है। उसका कारण यह प्रतीत होता है कि धर्म, अधर्म और आकाश तो नित्य हैं और पुद्गलों की स्थिति भी एक समय से लेकर असंख्यात समय की है जिसका वर्णन
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy