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अंगबाह्य आगम साहित्य २३७ और अनुत्तर विमानों में सबसे कम हैं। परन्तु मनुष्यलोक के (तिर्यक् लोक में) नीचे भवनवासी देव हैं। उनकी संख्या सौधर्म से अधिक है और उनसे ऊपर होने पर भी व्यन्तर देवों की संख्या अधिक और उनसे भी अधिक ज्योतिष्क हैं जो व्यन्तरों से भी ऊपर हैं।
सबसे कम संख्या मनुष्यों की है इसलिए यह भव दुर्लभ माना जाय यह स्वाभाविक है। इन्द्रियाँ जितनी कम उतनी जीवों की संख्या अधिक अथवा ऐसा कह सकते हैं कि विकसित जीवों की अपेक्षा से अविकसित जीवों की संख्या अधिक है। अनादिकाल से आज तक जिन्होंने पूर्णता प्राप्त कर ली है ऐसे सिद्ध जीवों की संख्या भी एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा से कम ही है। संसारी जीवों की संख्या सिद्धों से अधिक ही रहती है। इसलिए यह लोक संसारी जीवों से कभी शून्य नहीं होगा क्योंकि प्रस्तुत पद में जो संख्याएँ दी हैं उनमें कभी परिवर्तन नहीं होगा, ये ध्रुवसंख्याएं हैं।
सातवें नरक में अन्य नरकों की अपेक्षा सबसे कम नारक जीव हैं तो सबसे ऊपर देवलोक-अनुत्तर में भी अन्य देवलोकों की अपेक्षा सबसे कम जीव हैं । इससे यह प्रतीत होता है कि जैसे अत्यन्त पुण्यशाली होना दुष्कर है वैसे ही अत्यन्त पापी होना भी दुष्कर है। जीवों का जो क्रमिक विकास माना गया है उसके अनुसार तो निकृष्ट कोटि के जीव एकेन्द्रिय हैं। एकेन्द्रिय में से ही आगे बढ़कर जीव क्रमश: विकास को प्राप्त होते हैं।
एकेन्द्रियों और सिद्धों की संख्या अनन्त की गणना में पहुँचती है। अभव्य भी अनन्त हैं और सिद्धों की अपेक्षा समग्र रूप से संसारी जीवों की संख्या भी अधिक है। और यह बिलकुल संगत है क्योंकि भविष्य मेंअनागत काल में-संसारी जीवों में से ही सिद्ध होने वाले हैं। इसलिए वे कम हों तो संसार खाली हो जायगा-ऐसा मानना पड़ेगा।
' एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक क्रम से जीवों की संख्या घटती जाती है। यह क्रम अपर्याप्त जीवों में तो बराबर बना रहता है किन्तु पर्याप्त अवस्था में व्युत्क्रम मालूम पड़ता है। ऐसा क्यों हुआ है यह विज्ञों के लिए विचारणीय और संशोधन का विषय है।
चौथे पद में नाना प्रकार के जीवों की स्थिति अर्थात् आयुष्य का विचार हआ है। जीवों की उन-उन नारकादि रूप में स्थिति-अवस्थान