________________
२३६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा सम्पूर्ण विश्व एक ही तत्त्व का परिणाम है तो दूसरी ओर सांख्य के मत से जीव अनेक किन्तु अजीव एक है। बौद्धों की मान्यता अनेक चित्त और अनेक रूप की है। इस दृष्टि से जैनमत का स्पष्टीकरण आवश्यक था। वह यहाँ पर किया गया है। अन्य दर्शनों में सिर्फ संख्या का निरूपण है जबकि प्रस्तुत पद में संख्या का विचार अनेक दृष्टियों से किया गया है। मुख्य रूप से तारतम्य का निरूपण अर्थात् कौन किससे कम या अधिक है इसकी विचारणा इस पद में की गई है। प्रथम दिशा की अपेक्षा से किस दिशा में जीव अधिक और किस दिशा में कम, इसी तरह जीवों के भेदप्रभेद की न्यूनाधिकता का भी दिशा की अपेक्षा से विचार किया गया है। इसी प्रकार गति, इन्द्रिय, काय, योग आदि से जीवों के जो-जो प्रकार होते हैं उनमें संख्या का विचार करके अन्त में समग्र जीवों के जो विविध प्रकार होते हैं उन समग्र जीवों की न्यूनाधिक संख्या का निर्देश किया गया है।
इसमें केवल जीवों का ही नहीं किन्तु धर्मास्तिकाय आदि षट् द्रव्यों की भी परस्पर संख्या का तारतम्य निरूपण किया गया है। वह तारतम्य द्रव्यदृष्टि और प्रदेशष्टि से बताया गया है। प्रारम्भ में दिशा को मुख्य करके संख्या-विचार है और बाद में ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक लोक की दृष्टि से समग्र जीवों के भेदों का संख्यागत विचार है।
जीवों की तरह पुद्गलों की संख्या का अल्पबहुत्व भी उन-उन दिशाओं में व उन-उन लोकों में बताया है। इसके सिवाय द्रव्य, प्रदेश और द्रव्यप्रदेश दोनों दृष्टियों से भी परमाणु और संख्या का विचार है। उसके बाद पुद्गलों की अवगाहना, कालस्थिति और उनकी पर्यायों की दृष्टि से भी संख्या का निरूपण किया गया है। ..इस पद में जीवों का अनेक प्रकार से वर्गीकरण करके अल्प-बहुत्व का विचार किया है । इसकी संख्या की सूची पर से यह फलित होता है कि उस काल में भी आचार्यों ने जीवों की संख्या का तारतम्य (अल्पबहुत्व) बताने का इस प्रकार जो प्रयत्न किया है वह प्रशस्त है। इसमें बताया गया है कि पुरुषों से स्त्रियों की संख्या-चाहे मनुष्य हो, देव हो, या तिथंच होअधिक मानी गई है। अधोलोक में नारकों में प्रथम से सातवीं नरक में जीवों का क्रम घटता गया है अर्थात् सबसे नीचे के सातवें नरक में सबसे कम नारक जीव हैं। इससे विपरीत क्रम उर्ध्वलोक के देवों में है। उसमें सबसे नीचे के देवों में सबसे अधिक जीव हैं यानि सौधर्म में सबसे अधिक