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अंगबाह्य आगम साहित्य २३५ स्थान का विचार नहीं किया। जीवों के भेद-प्रभेद के सम्बन्ध में जो स्थान विचार किया है वह तीन स्थानों का है किन्तु सिद्ध के सम्बन्ध में तो केवल स्व-स्थान का ही विचार है; क्योंकि सिद्धों में 'उपपात' नहीं है। सिद्धों में उपपात इसलिए नहीं है कि अन्य संसारी जीवों की भांति उनमें नाम-गोत्र कर्म का उदय नहीं है अत: वे नाम धारण करके नवीन जन्म लेने के लिए गति नहीं करते । वे तो अपने ही स्वरूप को प्राप्त करते हैं और वही सिद्धि है। संसारी जीव अन्य स्थान पर जन्म लेते समय जो गति करते हैं वह गति आकाश-प्रदेशों को स्पर्श करके होती है अत: वे आकाश प्रदेश उनके स्थान हैं। किन्तु मुक्त जीवों में जो गति है वह आकाश प्रदेशों को स्पर्श करके नहीं होती अतः उस गति को अस्पृशद्गति कहा गया है।'
समुद्घात स्थान भी सिद्ध जीवों में नहीं है क्योंकि समुद्घात सकर्म जीवों में ही होता है, कर्मरहित जीवों में नहीं।
सामान्यरूप से यह कह सकते हैं कि एकेन्द्रिय जीव समग्र लोक में प्राप्त होते हैं। इसका रहस्य यह है कि तीनों लोकों में निवासस्थान' की अपेक्षा से सम्पूर्ण एकेन्द्रिय जाति का विवेचन है। बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय का निवास समग्रलोक में नहीं है किन्तु लोक के असंख्यातवें भाग में है और सिद्ध लोकान पर हैं। उसे भी लोक का असंख्यातवाँ भाग कहना चाहिए। मनुष्य में, केवली समुद्घात की दृष्टि से, निवासस्थान समग्र लोक में कहा गया है।
प्रश्न है कि अजीव के स्थान के सम्बन्ध में विचार क्यों नहीं किया? ऐसा ज्ञात होता है कि जीवों के प्रभेदों में अमूक निश्चित स्थान की कल्पना कर सकते हैं, वैसे पुद्गल के सम्बन्ध में नहीं। परमाणु व स्कन्ध समग्र लोकाकाश में हैं किन्तु उनका स्थान निश्चित नहीं है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय ये दोनों समग्र लोकव्यापी हैं और आकाश लोकालोकव्यापी है, अतः उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गई है।
तीसरे पद में जीव और अजीव तत्त्वों का संख्या की दृष्टि से विचार किया गया है। भगवान महावीर के समय और तत्पश्चात् भी तत्वों का संख्या-विचार महत्त्वपूर्ण विषय रहा है। एक ओर उपनिषदों के मत से
१ (क) भगवती सार, पृ. ३१३
(ख) उपाध्याय यशोविजयजी ने अस्पृशद्गतिनाम प्रकरण की रचना की है।